वेदों की विहंगम दृष्टि में नारी
✍ _:- भवितव्य आर्य "मनुगामी"_
स्त्री को शास्त्र-अध्ययन का निषेध करने वाले स्वयं शास्त्रों से कितनी दूर थे, इसका एक छोटा उदाहरण यह शोध-कणिका है।
पिछले दिनों सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश और उसपर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की चर्चाएँ जोरों पर थीं। नारी अधिकारों की बात कुछ नई नहीं है।
इस्लाम में दो महिलाओं की गवाही को एक पुरुष के बराबर माना गया है वहीं प्रथम स्त्री हौवा को आदम की पसली से बना बताया जाता है, पुरूष वहां भी आगे है।
मुसलमानो के इस स्थापना की जड़ ईसाइयों की बाइबिल है, जो किसी स्थिति में कमतर नहीं है, जिसकी दृष्टि में महिला केवल पुरूष को इन्द्रिय सुख की तृप्ति के लिए गढ़ी गई है।
यहूदियों की मान्यता भी इसी के आर्श्व-पार्श्व विचरण करती है। इससे भी बड़ी भयावह बात यह है कि पश्चिमी सभ्यता में स्त्री की "मानव-जाति" में गिनती ही नहीं की जाती थी।
वो तो भला हो विज्ञान का, जिससे भयाकुल यूरोपीय समाज मजबूरन संसद में कानून बनाकर अभी कुछ सौ साल पहले स्त्री को "मानव जाति" का होना स्वीकार किया।
इसी प्रकार बौद्ध मत में स्त्रियों को बुद्धत्व प्राप्ति का अधिकार नहीं है। त्रिपिटक में स्त्रियों को अनेक जन्मजात दुर्गुणों से युक्त बताया है।
जैन मत में स्त्री को अगले जन्म में पुरुष शरीर धारण करने के पश्चात ही मोक्ष का अधिकारी माना है।
यदि वेदों की दिव्य विहंगम दृष्टि को स्वयं में स्थापित कर लिया जाए तो विश्व भर में मजहब अथवा सम्प्रदाय के नाम पर उत्पात मचाने वाले इन सभी मिथ्या-विवादों अथवा विश्वासों की चूल हिल जाएगी।
भारतीय ज्ञान परम्परा पर विहंगम दृष्टि डालने से यह विदित होता है कि इस समृद्ध परम्परा में लैंगिक समानता व न्याय के स्वर यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। अग्रलिखित उद्धरण दृष्टव्य है:-
*(1)* वेद यदि पुरुष को *'ओजस्वान्'* (अथर्व. 8.5.4) ओज वाला कहता है तो स्त्री को *'ओजस्वती'* (यजु. 10.3) कहता है।
*(2)* पुरुष यदि *'सहस्त्रवीर्यः'* (अथर्व. 2.4.2) सहस्त्र पराक्रम वाला है तो स्त्री *'सहस्त्रवीर्याः'* (यजु. 13.26) कही गई है।
*(3)* पुरुष यदि *'सहीयान्'* (ऋ. 1.61.7) अत्यन्त बल वाला है, तो स्त्री *'सहीयसी'* (अथर्व. 10.5.43) बताई गई।
*(4)* पुरुष को यदि *'सम्राट'* (ऋ. 2.28.6) शासक कहा, तो स्त्री को *'सम्राज्ञी'* (ऋ. 1.85.64) कहा गया।
*(5)* पुरुष यदि *'मनीषी'* (ऋ. 9.96.8) मन वशीकरण करने वाला है तो स्त्री *'मनीषा'* (ऋ. 1.101.7) है।
*(6)* पुरुष यदि *'राजा'* (अथर्व. 1.33.2) दीप्तिमान् कहा गया, तो स्त्री *'राज्ञी'* (यजु. 14.13) कही गई।
*(7)* पुरुष यदि *'सभासदः'* (अथर्व. 20.21.3) सभाओं के अधिकारी हैं, तो स्त्री *'सभासदा'* (अथर्व. 8.8.9) है।
*(8)* पुरुष को यदि *'अषाडहः'* (ऋ. 7.20.3) अपराजित घोषित किया गया, तो स्त्री *'अषाढा'* (यजु. 13.26) प्रसिद्ध हुई।
*(9)* पुरुष यदि *'यज्ञियः'* (ऋ. .14.3) यज्ञ करने वाला, की उपाधि से युक्त है तो स्त्री *'यज्ञिया'* (यजु. 4.19) से सुभूषित है।
*(10)* यदि पुरुष *'ब्रह्मायं वाचः'* (ऋ. 10.71.11) ब्रह्मा = (चतुर्वेद वेत्ता) नाम से शोभित हुआ, तो स्त्री भी *'स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ'* (ऋ. 8.33.19) 'ब्रह्मा' संज्ञा से विभूषित हुई, आदि आदि।
ये तो बस कुछ उद्धरण मात्र हैं, वेदों में ऐसे प्रतिमानों का भण्डार है, जो कदाचित संसार के अन्य किसी ग्रंथ, साहित्य या परम्परा में देखने को नहीं मिलते।
भारतीय विश्वदृष्टि समस्त चराचर जगत् की तात्विक एकता का उद्घोष करती है।
आज आवश्यकता है वेदों की इस विहंगम सम्यक् दृष्टि को अपनाने की, जिसके द्वारा ही विज्ञानमय नए युग का भव्य स्वागत किया जा सकता है।
*वेदों की ओर लौटो!*
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