ओ३म्
वास्तव में मूर्तिपूजा का ईश्वर पूजा से कोई भी सम्बन्ध नहीं है।मूर्तियाँ कल्पित अवतारों की बनाई जाती है अथवा कल्पित देवी-देवताओं की होती हैं।
निराकार,सर्वव्यापक और अनन्त विश्व में एकरस व्याप्त सर्वाधार सर्वशक्तिमान परब्रह्म परमेश्वर की कोई मूर्ति बन ही नहीं सकती।
मूर्ति साकार वस्तु की आकृति की ही बनाना सम्भव होता है और उसी का फोटो भी खींचा जा सकता है.उसके रुप,रंग,आकार,लम्बाई,चौड़ाई,मोटाई की आकृति मूर्ति में उतारी जा सकती है।
जबकि परम सूक्ष्म निराकार सत्ता परमात्मा के सम्बन्ध में यह सम्भव नहीं है।इस प्रकार उनकी मूर्ति बन ही नहीं सकती।
राम,कृष्ण,हनुमान् आदि जिन महापुरुषों की मूर्तियाँ उन्हें ईश्वरावतार मानकर पूजते हैं,वे महान आत्मायें स्वयं परमात्मा की उपासना सन्धया,अग्निहोत्रादिनित्य कर्म करती थीं।
तो जो स्वयं ईश्वर भक्त हो,उन्हीं को परमात्मा मान बैठना पागलपन नहीं तो क्या माना जाएगा।महापुरुष मनुष्य थे,वे ईश्वर नहीं थे।
न उन्होंने जीवन में कोई भी कार्य ऐसा कभी किया था,जो मानव के करने की शक्ति से बाहर हो।ईश्वर का कार्य क्षेत्र जगत की रचना,पालन,रक्षण व प्रलय है।
मानव का कार्य-क्षेत्र उससे सर्वथा भिन्न व सीमित है.किसी भी मनुष्य ने ,चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो,अपने सीमित कार्य-क्षेत्र से बाहर ईश्वरीय रचना क्षेत्र में कोई कार्य करके नहीं दिखाया।
वे साधारण मानव की अपेक्षा महामानव अवश्य थे,जाति के पथ-प्रदर्शक थे और उसी रुप में उनका आदर किया जाना चाहिए।समय आने पर सभी की मृत्यु हुई थी।
आज कोई नहीं जानता कि वे पवित्रात्मआयें किस योनि में,कहां होंगी अथवा जन्म-जन्मान्तरों की तपश्चर्या स्वरुप मोक्षानन्द का उपभोग कर रही होंगी।
तब उनकी मूर्तियाँ पूजने और उनके नामों का जाप करने से क्या लाभ होगा,जबकि उनका पता-ठिकाना ही कुछ नहीं है।जब वे स्वयं परमेश्वर के भक्त थे तो सभी को ईश्वर का भक्त बनना चाहिए,
न कि उन ईश्वर भक्तों का उपासक बनकर उनकी मूर्तियों को पूजना व उनके नामों को जपना ।जिस परमेश्वर की उपासना करके उन लोगों ने अपना कल्याण किया था,वही परमेश्वर अपने सभी भक्तों का कल्याण करेगा।
मूर्तिपूजकों ने पूजने के लिए अपने कल्पित देवताओं की आकृतियाँ भी बड़ी विलक्षण कल्पित की हुई हैं।
ब्रह्माजी की मूर्ति चतुर्मुखी बनाई जाती है।उसके सिर में चारों और मुँह बने होते हैं।इसका अर्थ ये हुआ कि ब्रह्माजी खाट या पृथ्वी पर सो नहीं पाते होंगे,
क्योंकि जब भी वे लेटते होंगे तो उनका एक मुँह,नाक,आँख और मस्तक जमीन पर रगड़ खाकर जख्मी हो जाते होंगे।बेचारे ब्रह्माजी की बड़ी मुसीबत रहती होंगी।
इसलिए ब्रह्माजी की मूर्ति को सदैव जमीन में वेदी पर गाड़कर खड़ा रखा जाता है ताकि वे लेटने न पाए।जबकि विष्णु जी कई मूर्ति को बिना गाड़े हुए मन्दिरों में वेदी पर खड़ा रखा जाता है।
वास्तव में ब्रह्मा नाम परमात्मा का है।वह सर्वत्र व्यापक होने से चतुर्मुखी ही नहीं,सहस्रमुखी कहा जाता है क्योंकि वह अनन्त विश्व की प्रत्येक बात को जानता है।
इन पौराणिकों ने उसे चार मुंह,आठ आंखों वाला चतुर्मुखी बनाकर पाखण्ड फैलाया है।
इसी प्रकार विष्णु की मूर्ति के चित्रों में उनके चार हाथ बनाकर उनके शंख,चक्र,गदा और पदम चार पदार्थ धारण करा दिये जाते हैं।
क्या परमात्मा को भी शंख,सीटी या बाजा बजाने का शोक रहता है,जो शंख धारण करता है?या परमेश्वर को दुश्मनों से डर भी लगा रहता है जो वह सुदर्शन चक्र तथा गदा नाम के दो हथियार हर समय हाथों में लिये रहता है?
परमात्मा के भी शत्रु होते हैं और क्या वह उनसे भयभीत रहता है?यदि नह़ी तो फिर गदा और चक्र धारण करने का क्या रहस्य है,यह पुराणों में क्यों नहीं बताया गया है?
क्या परमात्मा को भी सुगन्धि सूंघने का अथवा फूलों का शौक है जो वह पद्य(कमल) को धारण करता है?यदि वह शौकीन है तो वह विकारी है।
यदि वह भयभीत रहकर आत्मरक्षा के लिए सशस्त्र रहता है तो वह परमेश्वर नहीं हो सकता।यदि वह सर्वव्यापक घट-घट वासी है तो उसे शंख के बाजे की कोई आवश्यकता नहीं हो सकती है।
यदि वह बाजा रखता है तो वह घट-घट वासी ईश्वर नहीं है।पुराणकारों ने विष्णु की मूर्ति बनाकर उसकी बड़ी निन्दा की है.
वास्तव में विष्णु नाम परमेश्वर का है जिसकी निराकार होने से कोई भी मूर्ति नहीं बन सकती।
शिवमूर्ति की ध्यानावस्थित दशा का होना यह बताता है कि शिवजी स्वयं किसी अन्य परब्रह्म परमेश्वर की आराधना किया करते थे।जो व्यक्ति दूसरों का उपासक हो ,आत्म-कल्याण के लिए योगाभ्यास व ध्यान करता हो,वह दूसरों को क्या देगाl
------- *Arya ram kishan _*
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मूर्ति पूजा |
*🌷मूर्ति पूजा🌷*
वास्तव में मूर्तिपूजा का ईश्वर पूजा से कोई भी सम्बन्ध नहीं है।मूर्तियाँ कल्पित अवतारों की बनाई जाती है अथवा कल्पित देवी-देवताओं की होती हैं।
निराकार,सर्वव्यापक और अनन्त विश्व में एकरस व्याप्त सर्वाधार सर्वशक्तिमान परब्रह्म परमेश्वर की कोई मूर्ति बन ही नहीं सकती।
मूर्ति साकार वस्तु की आकृति की ही बनाना सम्भव होता है और उसी का फोटो भी खींचा जा सकता है.उसके रुप,रंग,आकार,लम्बाई,चौड़ाई,मोटाई की आकृति मूर्ति में उतारी जा सकती है।
जबकि परम सूक्ष्म निराकार सत्ता परमात्मा के सम्बन्ध में यह सम्भव नहीं है।इस प्रकार उनकी मूर्ति बन ही नहीं सकती।
राम,कृष्ण,हनुमान् आदि जिन महापुरुषों की मूर्तियाँ उन्हें ईश्वरावतार मानकर पूजते हैं,वे महान आत्मायें स्वयं परमात्मा की उपासना सन्धया,अग्निहोत्रादिनित्य कर्म करती थीं।
तो जो स्वयं ईश्वर भक्त हो,उन्हीं को परमात्मा मान बैठना पागलपन नहीं तो क्या माना जाएगा।महापुरुष मनुष्य थे,वे ईश्वर नहीं थे।
न उन्होंने जीवन में कोई भी कार्य ऐसा कभी किया था,जो मानव के करने की शक्ति से बाहर हो।ईश्वर का कार्य क्षेत्र जगत की रचना,पालन,रक्षण व प्रलय है।
मानव का कार्य-क्षेत्र उससे सर्वथा भिन्न व सीमित है.किसी भी मनुष्य ने ,चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो,अपने सीमित कार्य-क्षेत्र से बाहर ईश्वरीय रचना क्षेत्र में कोई कार्य करके नहीं दिखाया।
वे साधारण मानव की अपेक्षा महामानव अवश्य थे,जाति के पथ-प्रदर्शक थे और उसी रुप में उनका आदर किया जाना चाहिए।समय आने पर सभी की मृत्यु हुई थी।
आज कोई नहीं जानता कि वे पवित्रात्मआयें किस योनि में,कहां होंगी अथवा जन्म-जन्मान्तरों की तपश्चर्या स्वरुप मोक्षानन्द का उपभोग कर रही होंगी।
तब उनकी मूर्तियाँ पूजने और उनके नामों का जाप करने से क्या लाभ होगा,जबकि उनका पता-ठिकाना ही कुछ नहीं है।जब वे स्वयं परमेश्वर के भक्त थे तो सभी को ईश्वर का भक्त बनना चाहिए,
न कि उन ईश्वर भक्तों का उपासक बनकर उनकी मूर्तियों को पूजना व उनके नामों को जपना ।जिस परमेश्वर की उपासना करके उन लोगों ने अपना कल्याण किया था,वही परमेश्वर अपने सभी भक्तों का कल्याण करेगा।
मूर्तिपूजकों ने पूजने के लिए अपने कल्पित देवताओं की आकृतियाँ भी बड़ी विलक्षण कल्पित की हुई हैं।
ब्रह्माजी की मूर्ति चतुर्मुखी बनाई जाती है।उसके सिर में चारों और मुँह बने होते हैं।इसका अर्थ ये हुआ कि ब्रह्माजी खाट या पृथ्वी पर सो नहीं पाते होंगे,
क्योंकि जब भी वे लेटते होंगे तो उनका एक मुँह,नाक,आँख और मस्तक जमीन पर रगड़ खाकर जख्मी हो जाते होंगे।बेचारे ब्रह्माजी की बड़ी मुसीबत रहती होंगी।
इसलिए ब्रह्माजी की मूर्ति को सदैव जमीन में वेदी पर गाड़कर खड़ा रखा जाता है ताकि वे लेटने न पाए।जबकि विष्णु जी कई मूर्ति को बिना गाड़े हुए मन्दिरों में वेदी पर खड़ा रखा जाता है।
वास्तव में ब्रह्मा नाम परमात्मा का है।वह सर्वत्र व्यापक होने से चतुर्मुखी ही नहीं,सहस्रमुखी कहा जाता है क्योंकि वह अनन्त विश्व की प्रत्येक बात को जानता है।
इन पौराणिकों ने उसे चार मुंह,आठ आंखों वाला चतुर्मुखी बनाकर पाखण्ड फैलाया है।
इसी प्रकार विष्णु की मूर्ति के चित्रों में उनके चार हाथ बनाकर उनके शंख,चक्र,गदा और पदम चार पदार्थ धारण करा दिये जाते हैं।
क्या परमात्मा को भी शंख,सीटी या बाजा बजाने का शोक रहता है,जो शंख धारण करता है?या परमेश्वर को दुश्मनों से डर भी लगा रहता है जो वह सुदर्शन चक्र तथा गदा नाम के दो हथियार हर समय हाथों में लिये रहता है?
परमात्मा के भी शत्रु होते हैं और क्या वह उनसे भयभीत रहता है?यदि नह़ी तो फिर गदा और चक्र धारण करने का क्या रहस्य है,यह पुराणों में क्यों नहीं बताया गया है?
क्या परमात्मा को भी सुगन्धि सूंघने का अथवा फूलों का शौक है जो वह पद्य(कमल) को धारण करता है?यदि वह शौकीन है तो वह विकारी है।
यदि वह भयभीत रहकर आत्मरक्षा के लिए सशस्त्र रहता है तो वह परमेश्वर नहीं हो सकता।यदि वह सर्वव्यापक घट-घट वासी है तो उसे शंख के बाजे की कोई आवश्यकता नहीं हो सकती है।
यदि वह बाजा रखता है तो वह घट-घट वासी ईश्वर नहीं है।पुराणकारों ने विष्णु की मूर्ति बनाकर उसकी बड़ी निन्दा की है.
वास्तव में विष्णु नाम परमेश्वर का है जिसकी निराकार होने से कोई भी मूर्ति नहीं बन सकती।
शिवमूर्ति की ध्यानावस्थित दशा का होना यह बताता है कि शिवजी स्वयं किसी अन्य परब्रह्म परमेश्वर की आराधना किया करते थे।जो व्यक्ति दूसरों का उपासक हो ,आत्म-कल्याण के लिए योगाभ्यास व ध्यान करता हो,वह दूसरों को क्या देगाl
------- *Arya ram kishan _*
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