सत्यार्थ प्रकाश
महर्षि दयानन्द ने उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में अपना कालजयी ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश (Light Of Truth) रचकर धार्मिक जगत में एक क्रांति कर दी ।
यह ग्रन्थ वैचारिक क्रान्ति का एक शंखनाद है । इस ग्रन्थ का जन साधारण पर और विचारशील दोनों प्रकार के लोगों पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा ।
हिन्दी भाषा में प्रकाशित होने वाले किसी दूसरे ग्रन्थ का एक शताब्दी से भी कम समय में इतना प्रसार नहीं हुआ जितना कि इस ग्रन्थ का अर्धशताब्दी में प्रचार प्रसार हुआ ।
हिन्दी में छपा कोई अन्य ग्रन्थ एक शताब्दी के भीतर देश व विदेश की इतनी भाषाओं में अनुदित नहीं हुआ जितनी भाषाओं में इसका अनुवाद हो गया है ।
हिन्दी में तो कवियों ने इसका पद्यानुवाद भी कर दिया । इस ग्रन्थ का लेखक ईश्वर जीव प्रकृति इन तीन पदार्थों को अनादि मानता है ।
ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव भी अनादि व नित्य हैं । विज्ञान का भी यही मत है कि सृष्टि नियम अटल अटूट व सार्वभौमिक हैं । इन नियमों का नियंता परमात्मा है ।
परमात्मा के सृष्टि नियम न तो बदलते हैं न टूटते हैं न घटते हैं न बढते हैं और न ही घिसते हैं । इसलिये चमत्कार की बातें करना एक अन्धविश्वास है ।
किसी भी मत का व्यक्ति यदि पशुबलि पाषाण पूजा, अवतारवाद व चमत्कारों में आस्था रखता है तो यह उसका कोरा अन्धविश्वास है ।
सत्यार्थ प्रकाश में वेदों उपनिषदों व दर्शनों की गूढ बातों को सरल ढंग से समझाया गया है ।*
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