ओ३म्
हमें इस बात का ज्ञान है कि हमारा जन्म हुआ है और हम मृत्यु की ओर बढ़ रहे हैं। मृत्यु का ज्ञान हमें अपने परिवार सहित मित्रों एवं सम्बन्धियों में यदा-कदा होने वाली मृत्यु की घटनाओं से भी होता है।
ऐसे अवसरों पर आसपास व दूर के सम्बन्धी भी आ जाते हैं और वह घर व श्मशान घाट में चर्चा करते हैं कि संसार में जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है।
मृत्यु के पाश से कोई छूट नहीं सकता। हमारे माता-पिता, दादी-दादा एवं उससे पूर्व के सभी पूर्वज समय-समय पर संसार से मृत्यु का वरण करते हुए जाते रहे हैं।
अतः जब हमारे भी कर्म-फल व भोग पूरे हो जायेंगे अथवा शरीर आत्मा को धारण करने की शक्ति से विहीन हो जायेगा, तो परमात्मा हमें भी इस शरीर से निकाल कर हमारे शेष भोगों व प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य अथवा किसी अन्य प्राणी योनि में जन्म देंगे।
ऐसा ही वर्णन आर्ष ग्रन्थों में ऋषियों, विद्वानों एवं मनीषियों ने किया है। यह तो हमने मृत्यु विषयक कुछ शब्द लिखे हैं। मृत्यु से पूर्व जन्म होता है। जन्म का कारण क्या है?, अब इस पर विचार करते हैं।
हमारे शास्त्र बताते हैं कि हमारे व सभी मनुष्य आदि प्राणियों के जन्म का कारण पूर्वजन्म के वह कर्म होते हैं जिनका पूर्वजन्म में मृत्यु से पूर्व भोग नहीं हो पाता है।
परमात्मा सभी जीवों वा प्राणियों के सभी कर्मों का साक्षी होता है। उसे यह ज्ञात होता है कि हमने कब क्या-क्या कर्म किये हैं, हमारे किन कर्मों का भोग हो चुका है और कौन से कर्म हैं, जिनका भोग शेष है? उन शेष कर्मों के भोग के लिये ही हमारा जन्म होता है।
शास्त्रों की यह बात तर्क व युक्ति से भी सत्य सिद्ध होती है। यदि हम ईश्वर को कर्मफल दाता मानते हैं तभी जन्म व मृत्यु विषयक सभी प्रश्नों का समाधान होता है।
परमात्मा के बारे में ऋषि दयानन्द जी ने आर्यसमाज के दूसरे नियम में बताया है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है।
वह सर्वज्ञ, कर्मफल दाता, वेदज्ञान का दाता, जीवात्मा का शाश्वत व सनातन साथी, व्याप्य-व्यापक तथा स्वामी-सेवक सम्बन्ध वाला हमारा परम हितैषी है।
वह ईश्वर सत्कर्मों का प्रेरक एवं पापकर्मों के प्रति हमें सावधान कर चेतावनी भी देता है। मृत्यु के समय परमात्मा की प्रेरणा से ही जीवात्मा सूक्ष्म शरीर के साथ शरीर से निकलती है और ईश्वर की प्रेरणा से ही भावी पिता व माता के शरीर में प्रविष्ट होकर नये शरीर को प्राप्त होती है।
जीवात्मा सत्य-चित्त स्वरूप वाला होने सहित इच्छा व द्वेष आदि लक्षणों वाला है। यह ज्ञान व कर्म की अल्प शक्ति से युक्त होता है। जीवात्मा अनादि, नित्य, अमर, अविनाशी, जन्म-मरण-धर्मा, सद्ज्ञान व सद्कर्मों से मोक्ष को प्राप्त होने वाला, एकदेशी, ससीम तथा कर्मानुसार सुख एवं दुःखों का भोग करने वाला है।
ईश्वर ने इस संसार की रचना की है तो उसका प्रमुख कारण जीवों के पूर्वजन्मों के अवशिष्ट कर्मों का भोग वा सुख-दुःख प्रदान करना है।
ईश्वर में सृष्टि को उत्पन्न करने व इसका पालन करने की सामर्थ्य होने से भी वह इस सृष्टि की रचना के कार्य को करता है। डाक्टर यदि किसी रोगी का उपचार न करे तो उसे डाक्टर नहीं कहा व माना जायेगा।
इसी प्रकार से यदि धार्मिक गुणों वाला ईश्वर जीवों के लिए सृष्टि की रचना न करे तो लोग उसे ईश्वर क्योंकर स्वीकार करेंगे? हमें लेख लिखने का कुछ-कुछ अभ्यास है।
कई बार हमें आवश्यक कार्य होते हैं अथवा स्वास्थ्य अनुकूल नहीं होता, तब भी प्रवृत्ति व अभ्यास के कारण हम लेखन का कार्य करते हैं। ऐसा ही सभी मनुष्यों व मनुष्येतर चेतन सत्ताओं में भी होता है।
अतः परमात्मा न्यायपूर्वक जीवों के सभी अभुक्त कर्मों का फल देने के लिये सृष्टि की रचना करने सहित सृष्टि व जीवों का नाना प्रकार की योनियों में पालन भी करते हैं।
हमारे जन्म का एक प्रमुख कारण जन्म से सम्बन्धित कर्म के बन्धनों को काटना व दूर करना भी है। इन बन्धनों को काटने का उपाय भी वैदिक साहित्य में ऋषि दयानन्द सहित हमारे ऋषियों ने बताया है।
इसका तर्क संगत तरीका यह है कि हम अपने पूर्व सभी शुभ व अशुभ कर्मों का भोग जो ईश्वर की व्यवस्था से हमें मिलना है, उसे प्रसन्नतापूर्वक भोग करें और भविष्य में शुभ व अशुभ अर्थात् पाव व पुण्य कर्मों के स्वरूप व प्रकृति को जानकर अशुभ कर्मों का सर्वथा त्याग कर दें।
शुभ कर्मों के फलों के भोग में भी हमारी आसक्ति नहीं होनी चाहिये। इसके लिये ऋषि दयानन्द का जीवन आदर्श जीवन है जिससे हम प्रेरणा ले सकते हैं।
इसके लिये हमें ऋषि दयानन्द जी का स्वामी सत्यानन्द, पं. लेखराम, पं0 देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय या डॉ0 भवानीलाल भारतीय जी द्वारा लिखित कोई एक जीवन चरित पढ़ना होगा।
इससे हमें अपने जीवन को दुरितों का त्याग करने एवं भद्र कार्यों को करने के उदाहरण एवं प्रेरणा मिलेगी। ऐसा करके जब हम अपने कर्म के बन्धनों को काट देंगे या भोग लेंगे और आगे पाप कर्मों को नहीं करेंगे तो इससे हमारा जन्म व मरण के बन्धनों से छुटकारा व मुक्ति हो सकती है।
इसके लिये ऋषि दयानन्द के विख्यात ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन भी आवश्यक है। इससे हमें उन कर्मों का ज्ञान होगा जो मोक्ष की प्राप्ति के लिये किसी मुमुक्षु को करने होते हैं।
यह देखा जाता है कि मनुष्य जन्म व मृत्यु के विषय में तो कुछ-कुछ जानते हैं परन्तु मोक्ष के विषय में नहीं जानते। मोक्ष के विषय में सभी मनुष्यों को जानने का प्रयत्न करना चाहिये।
मोक्ष का ज्ञान प्राप्त होने पर उन्हें बुराईयों को छोड़ने तथा सत्य वा कल्याण मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलेगी। जिस प्रकार जो व्यक्ति अपराध नहीं करता उसे सरकारी व्यवस्था से दण्ड भी नहीं मिलता, उसी प्रकार जब हम बुरे वा पाप कर्मों को करना छोड़ देते हैं तो हमें उनके फलों अर्थात् दुःखों के भोग से भी बच जाते हैं।
हम अपने जीवनों में दुःख नहीं चाहते परन्तु हम यह जानने का प्रयत्न ही नहीं करते कि दुःखों का कारण क्या होता है?
वैदिक सत्साहित्य के अध्ययन एवं इसकी सहायता से इस विषय में विचार करने से ज्ञात होता है कि हमारे दुःखों का कारण पूर्व किये हुए पाप कर्म अथवा आधिदैविक, आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक कारणों से दुःख प्राप्त होता है।
इन सब कारणों से होने वाले दुःखों को हम अपने ज्ञान व विवेक सहित सावधान रहकर दूर कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने कहा है कि हमारा शरीर पंचभौतिक तत्वों से मिलकर बना है।
अनेक सावधानियों को रखने के बाद भी हमारी अल्पज्ञता व वायु, जल तथा अन्न की गुणवत्ता में कमी व दोषों के कारण भी हमारे शरीर में उदर व ज्वर आदि रोग हो सकते हैं।
शरीर का गुण व धर्म रोग भी होता है। इनसे बचने के लिये बहुत सावधानियों की आवश्यकता होती है। इसके लिये हमें ईश्वरोपासना एवं अग्निहोत्र यज्ञ सहित स्वच्छता पर विशेष ध्यान देते हुए करणीय कर्मों को करना होगा।
ईश्वरोपासना तथा अग्निहोत्र से हमारे मन व आत्मा की पवित्रता सहित हमारी वायु, जल व अन्न आदि पदार्थों की भी शुद्धि होती हैं। यज्ञ का सम्बन्ध समय पर वर्षा के होने से भी है।
यदि हम यज्ञ करेंगे तो समय पर उचित मात्रा में वर्षा के होने से हमें आध्यात्मिक सुख आदि की प्राप्ति व लाभ प्राप्त होंगे। अतः वैदिक कर्मों व कर्तव्यों का पालन सभी मनुष्यों को मत-मतान्तरों के आग्रहों से ऊपर उठकर करना चाहिये।
हमारे मत-मतान्तरों के आचार्य अपनी अविद्या व स्वार्थों के कारण हमें सत्य के ग्रहण करने के प्रति उत्साहित न करें अथवा रोके भी, परन्तु हमें अपने कर्मों का फल स्वयं ही भोगना है, अतः हमें वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय कर अपने कर्तव्य का निर्धारण कर उसका पालन करना चाहिये।
जन्म व मरण का विचार करते हुए हमें ईश्वर के गुणों व उसके साथ अपने सम्बन्धों पर भी विचार करना चाहिये। ईश्वर हमारा सदा-सदा का शाश्वत एवं सनातन साथी है।
ईश्वर से हमारा व्याप्य-व्यापक एवं स्वामी-सेवक का सम्बन्ध है। अतः हमें ईश्वर की उपासना व उसकी संगति में प्रमाद नहीं करना चाहिये। ईश्वर चिन्तन एवं स्वाध्याय के द्वारा ईश्वर की संगति का लाभ प्राप्त होता है।
सच्चे वैदिक विद्वानों के आध्यात्मिक प्रवचनों से भी उपासना की प्रेरणा प्राप्त होती है। इससे हमें सद्कर्मों को करने की प्रेरणा और दुरितों अर्थात् सम्पूर्ण दुर्गुण एवं दुर्व्यस्नों के त्याग की प्रेरणा मिलती है। दुष्कर्मों के त्याग से हमारा अभ्युदय एवं मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है।
हम भारत देश के नागरिक हैं। हमारे पड़ोस में कई शत्रु देश हैं। हमारे देश में कई नेताऐसे हुए हैं जिन्होंने देश के सामने जाने-अनजाने में नाना प्रकार की समस्याओं को जन्म दिया है।
नेताओं में ज्ञान वा सूझ-बूझ की कमी सहित बड़ा व लोकप्रिय बनने की सनक तथा पक्षपात आदि से भी देश में समस्यायें उत्पन्न होती हैं।
मनुष्य अल्पज्ञ है और हमारे सारे नेता भी अल्पज्ञ ही थे। इस कारण भी उन्होंने अनेकानेक त्रुटियां की हैं। हमारे सैनिक हमारी रक्षा कर रहे हैं।
आज हमारा जीवन तथा जीवन के सभी सुख हमारे सैनिकों द्वारा की जाने वाली देश की रक्षा व बलिदानों की देन है। यदि हमारे सैनिक देश की रक्षा न करें और अपना जीवन बलिदान न करें, तो हम सुरक्षित एवं सुखी नहीं रह सकते।
इस लिये हम अपने सैनिकों के प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं और उनके देश रक्षा के कार्यों एवं बलिदानों के लिये हम उनके आभारी एवं चिरऋणी हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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हमारे जन्म और मृत्यु का कारण क्या है? |
हमारे जन्म और मृत्यु का कारण क्या है?
============हमें इस बात का ज्ञान है कि हमारा जन्म हुआ है और हम मृत्यु की ओर बढ़ रहे हैं। मृत्यु का ज्ञान हमें अपने परिवार सहित मित्रों एवं सम्बन्धियों में यदा-कदा होने वाली मृत्यु की घटनाओं से भी होता है।
ऐसे अवसरों पर आसपास व दूर के सम्बन्धी भी आ जाते हैं और वह घर व श्मशान घाट में चर्चा करते हैं कि संसार में जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है।
मृत्यु के पाश से कोई छूट नहीं सकता। हमारे माता-पिता, दादी-दादा एवं उससे पूर्व के सभी पूर्वज समय-समय पर संसार से मृत्यु का वरण करते हुए जाते रहे हैं।
अतः जब हमारे भी कर्म-फल व भोग पूरे हो जायेंगे अथवा शरीर आत्मा को धारण करने की शक्ति से विहीन हो जायेगा, तो परमात्मा हमें भी इस शरीर से निकाल कर हमारे शेष भोगों व प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य अथवा किसी अन्य प्राणी योनि में जन्म देंगे।
ऐसा ही वर्णन आर्ष ग्रन्थों में ऋषियों, विद्वानों एवं मनीषियों ने किया है। यह तो हमने मृत्यु विषयक कुछ शब्द लिखे हैं। मृत्यु से पूर्व जन्म होता है। जन्म का कारण क्या है?, अब इस पर विचार करते हैं।
हमारे शास्त्र बताते हैं कि हमारे व सभी मनुष्य आदि प्राणियों के जन्म का कारण पूर्वजन्म के वह कर्म होते हैं जिनका पूर्वजन्म में मृत्यु से पूर्व भोग नहीं हो पाता है।
परमात्मा सभी जीवों वा प्राणियों के सभी कर्मों का साक्षी होता है। उसे यह ज्ञात होता है कि हमने कब क्या-क्या कर्म किये हैं, हमारे किन कर्मों का भोग हो चुका है और कौन से कर्म हैं, जिनका भोग शेष है? उन शेष कर्मों के भोग के लिये ही हमारा जन्म होता है।
शास्त्रों की यह बात तर्क व युक्ति से भी सत्य सिद्ध होती है। यदि हम ईश्वर को कर्मफल दाता मानते हैं तभी जन्म व मृत्यु विषयक सभी प्रश्नों का समाधान होता है।
परमात्मा के बारे में ऋषि दयानन्द जी ने आर्यसमाज के दूसरे नियम में बताया है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है।
वह सर्वज्ञ, कर्मफल दाता, वेदज्ञान का दाता, जीवात्मा का शाश्वत व सनातन साथी, व्याप्य-व्यापक तथा स्वामी-सेवक सम्बन्ध वाला हमारा परम हितैषी है।
वह ईश्वर सत्कर्मों का प्रेरक एवं पापकर्मों के प्रति हमें सावधान कर चेतावनी भी देता है। मृत्यु के समय परमात्मा की प्रेरणा से ही जीवात्मा सूक्ष्म शरीर के साथ शरीर से निकलती है और ईश्वर की प्रेरणा से ही भावी पिता व माता के शरीर में प्रविष्ट होकर नये शरीर को प्राप्त होती है।
श्रीराम जी के वंशज |
सभी मत मतान्तरों का ईश्वर एक ही है |
पूजा किसकी,क्यों व कैसे करें |
ईश्वर कहाँ रहता है? |
जीवात्मा सत्य-चित्त स्वरूप वाला होने सहित इच्छा व द्वेष आदि लक्षणों वाला है। यह ज्ञान व कर्म की अल्प शक्ति से युक्त होता है। जीवात्मा अनादि, नित्य, अमर, अविनाशी, जन्म-मरण-धर्मा, सद्ज्ञान व सद्कर्मों से मोक्ष को प्राप्त होने वाला, एकदेशी, ससीम तथा कर्मानुसार सुख एवं दुःखों का भोग करने वाला है।
ईश्वर ने इस संसार की रचना की है तो उसका प्रमुख कारण जीवों के पूर्वजन्मों के अवशिष्ट कर्मों का भोग वा सुख-दुःख प्रदान करना है।
ईश्वर में सृष्टि को उत्पन्न करने व इसका पालन करने की सामर्थ्य होने से भी वह इस सृष्टि की रचना के कार्य को करता है। डाक्टर यदि किसी रोगी का उपचार न करे तो उसे डाक्टर नहीं कहा व माना जायेगा।
इसी प्रकार से यदि धार्मिक गुणों वाला ईश्वर जीवों के लिए सृष्टि की रचना न करे तो लोग उसे ईश्वर क्योंकर स्वीकार करेंगे? हमें लेख लिखने का कुछ-कुछ अभ्यास है।
कई बार हमें आवश्यक कार्य होते हैं अथवा स्वास्थ्य अनुकूल नहीं होता, तब भी प्रवृत्ति व अभ्यास के कारण हम लेखन का कार्य करते हैं। ऐसा ही सभी मनुष्यों व मनुष्येतर चेतन सत्ताओं में भी होता है।
अतः परमात्मा न्यायपूर्वक जीवों के सभी अभुक्त कर्मों का फल देने के लिये सृष्टि की रचना करने सहित सृष्टि व जीवों का नाना प्रकार की योनियों में पालन भी करते हैं।
हमारे जन्म का एक प्रमुख कारण जन्म से सम्बन्धित कर्म के बन्धनों को काटना व दूर करना भी है। इन बन्धनों को काटने का उपाय भी वैदिक साहित्य में ऋषि दयानन्द सहित हमारे ऋषियों ने बताया है।
इसका तर्क संगत तरीका यह है कि हम अपने पूर्व सभी शुभ व अशुभ कर्मों का भोग जो ईश्वर की व्यवस्था से हमें मिलना है, उसे प्रसन्नतापूर्वक भोग करें और भविष्य में शुभ व अशुभ अर्थात् पाव व पुण्य कर्मों के स्वरूप व प्रकृति को जानकर अशुभ कर्मों का सर्वथा त्याग कर दें।
शुभ कर्मों के फलों के भोग में भी हमारी आसक्ति नहीं होनी चाहिये। इसके लिये ऋषि दयानन्द का जीवन आदर्श जीवन है जिससे हम प्रेरणा ले सकते हैं।
इसके लिये हमें ऋषि दयानन्द जी का स्वामी सत्यानन्द, पं. लेखराम, पं0 देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय या डॉ0 भवानीलाल भारतीय जी द्वारा लिखित कोई एक जीवन चरित पढ़ना होगा।
इससे हमें अपने जीवन को दुरितों का त्याग करने एवं भद्र कार्यों को करने के उदाहरण एवं प्रेरणा मिलेगी। ऐसा करके जब हम अपने कर्म के बन्धनों को काट देंगे या भोग लेंगे और आगे पाप कर्मों को नहीं करेंगे तो इससे हमारा जन्म व मरण के बन्धनों से छुटकारा व मुक्ति हो सकती है।
इसके लिये ऋषि दयानन्द के विख्यात ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन भी आवश्यक है। इससे हमें उन कर्मों का ज्ञान होगा जो मोक्ष की प्राप्ति के लिये किसी मुमुक्षु को करने होते हैं।
यह देखा जाता है कि मनुष्य जन्म व मृत्यु के विषय में तो कुछ-कुछ जानते हैं परन्तु मोक्ष के विषय में नहीं जानते। मोक्ष के विषय में सभी मनुष्यों को जानने का प्रयत्न करना चाहिये।
मोक्ष का ज्ञान प्राप्त होने पर उन्हें बुराईयों को छोड़ने तथा सत्य वा कल्याण मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलेगी। जिस प्रकार जो व्यक्ति अपराध नहीं करता उसे सरकारी व्यवस्था से दण्ड भी नहीं मिलता, उसी प्रकार जब हम बुरे वा पाप कर्मों को करना छोड़ देते हैं तो हमें उनके फलों अर्थात् दुःखों के भोग से भी बच जाते हैं।
हम अपने जीवनों में दुःख नहीं चाहते परन्तु हम यह जानने का प्रयत्न ही नहीं करते कि दुःखों का कारण क्या होता है?
वैदिक सत्साहित्य के अध्ययन एवं इसकी सहायता से इस विषय में विचार करने से ज्ञात होता है कि हमारे दुःखों का कारण पूर्व किये हुए पाप कर्म अथवा आधिदैविक, आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक कारणों से दुःख प्राप्त होता है।
इन सब कारणों से होने वाले दुःखों को हम अपने ज्ञान व विवेक सहित सावधान रहकर दूर कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने कहा है कि हमारा शरीर पंचभौतिक तत्वों से मिलकर बना है।
अनेक सावधानियों को रखने के बाद भी हमारी अल्पज्ञता व वायु, जल तथा अन्न की गुणवत्ता में कमी व दोषों के कारण भी हमारे शरीर में उदर व ज्वर आदि रोग हो सकते हैं।
शरीर का गुण व धर्म रोग भी होता है। इनसे बचने के लिये बहुत सावधानियों की आवश्यकता होती है। इसके लिये हमें ईश्वरोपासना एवं अग्निहोत्र यज्ञ सहित स्वच्छता पर विशेष ध्यान देते हुए करणीय कर्मों को करना होगा।
ईश्वरोपासना तथा अग्निहोत्र से हमारे मन व आत्मा की पवित्रता सहित हमारी वायु, जल व अन्न आदि पदार्थों की भी शुद्धि होती हैं। यज्ञ का सम्बन्ध समय पर वर्षा के होने से भी है।
यदि हम यज्ञ करेंगे तो समय पर उचित मात्रा में वर्षा के होने से हमें आध्यात्मिक सुख आदि की प्राप्ति व लाभ प्राप्त होंगे। अतः वैदिक कर्मों व कर्तव्यों का पालन सभी मनुष्यों को मत-मतान्तरों के आग्रहों से ऊपर उठकर करना चाहिये।
हमारे मत-मतान्तरों के आचार्य अपनी अविद्या व स्वार्थों के कारण हमें सत्य के ग्रहण करने के प्रति उत्साहित न करें अथवा रोके भी, परन्तु हमें अपने कर्मों का फल स्वयं ही भोगना है, अतः हमें वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय कर अपने कर्तव्य का निर्धारण कर उसका पालन करना चाहिये।
जन्म व मरण का विचार करते हुए हमें ईश्वर के गुणों व उसके साथ अपने सम्बन्धों पर भी विचार करना चाहिये। ईश्वर हमारा सदा-सदा का शाश्वत एवं सनातन साथी है।
ईश्वर से हमारा व्याप्य-व्यापक एवं स्वामी-सेवक का सम्बन्ध है। अतः हमें ईश्वर की उपासना व उसकी संगति में प्रमाद नहीं करना चाहिये। ईश्वर चिन्तन एवं स्वाध्याय के द्वारा ईश्वर की संगति का लाभ प्राप्त होता है।
सच्चे वैदिक विद्वानों के आध्यात्मिक प्रवचनों से भी उपासना की प्रेरणा प्राप्त होती है। इससे हमें सद्कर्मों को करने की प्रेरणा और दुरितों अर्थात् सम्पूर्ण दुर्गुण एवं दुर्व्यस्नों के त्याग की प्रेरणा मिलती है। दुष्कर्मों के त्याग से हमारा अभ्युदय एवं मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है।
हम भारत देश के नागरिक हैं। हमारे पड़ोस में कई शत्रु देश हैं। हमारे देश में कई नेताऐसे हुए हैं जिन्होंने देश के सामने जाने-अनजाने में नाना प्रकार की समस्याओं को जन्म दिया है।
नेताओं में ज्ञान वा सूझ-बूझ की कमी सहित बड़ा व लोकप्रिय बनने की सनक तथा पक्षपात आदि से भी देश में समस्यायें उत्पन्न होती हैं।
मनुष्य अल्पज्ञ है और हमारे सारे नेता भी अल्पज्ञ ही थे। इस कारण भी उन्होंने अनेकानेक त्रुटियां की हैं। हमारे सैनिक हमारी रक्षा कर रहे हैं।
आज हमारा जीवन तथा जीवन के सभी सुख हमारे सैनिकों द्वारा की जाने वाली देश की रक्षा व बलिदानों की देन है। यदि हमारे सैनिक देश की रक्षा न करें और अपना जीवन बलिदान न करें, तो हम सुरक्षित एवं सुखी नहीं रह सकते।
इस लिये हम अपने सैनिकों के प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं और उनके देश रक्षा के कार्यों एवं बलिदानों के लिये हम उनके आभारी एवं चिरऋणी हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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