ओ३म्
भारत वह देश है जहां के लोगों के पूर्वजों को सृष्टि के आरम्भ में ही परमात्मा ने ज्ञान विज्ञान से युक्त चार वेदों का ज्ञान दिया था। वेदों में सब सत्य विद्यायें मूल वा बीज रूप में विद्यमान हैं।
ईश्वर व जीवात्मा सहित कारण प्रकृति एवं कार्य प्रकृति के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान भी वेद एवं वेद की ऋषियों द्वारा की गई व्याख्याओं उपनिषद एवं दर्शन आदि ग्रन्थों में सुलभ होता है।
महाभारत युद्ध के समय व उसके कुछ समय बाद तक वेदज्ञान के अधिकारी विद्वान जिन्हें ऋषि कहा जा सकता है, भारत में बड़ी संख्या में विद्यमान रहे।
समय के साथ आर्यो-वैदिक धर्मियों में आलस्य व प्रमाद बढ़ता गया जिससे वेदों का अध्ययन व अध्यापन सुचारु से जारी न रह सका।
इस कारण देश में वेदों की अप्रवृत्ति से अज्ञान उत्पन्न होने लगा जिसका परिणाम देश में अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियां व सामाजिक बुराईयों का उत्पन्न होना हुआ।
महाभारत के कुछ वर्ष बाद हुए जैमिनी ऋषि पर ऋषि परम्परा समाप्त हो गई। उनके बाद ऋषि दयानन्द तक देश में वेदों का मर्मज्ञ व ईश्वर का साक्षात्कार किया हआ ऋषि उत्पन्न नहीं हुआ।
वेदों के अप्रचार व अध्ययन में रुकावट के कारण ईश्वर का सत्य स्वरूप भी धूमिल होता गया और यज्ञों में गाय, बकरी, भेड़ तथा अश्व आदि पशुओं की हिंसा की जाने लगी।
यज्ञों में हिंसा के कारण देश में बौद्ध मत की स्थापना हुई। कालान्तर में महावीर स्वामी जी के नाम पर जैन मत स्थापित हुआ। इन मतों में ईश्वर विषयक वैदिक ज्ञान का यथार्थ रूप में विधान नहीं है।
इस कारण इन मतों में अनेक वेद विरुद्ध अविद्यायुक्त मान्यतायें विद्यमान हैं। इन मतों में ईश्वर के वेदों व तर्कों से पुष्ट अस्तित्व को नकारा गया है।
जब ईश्वर को नकार दिया तो कर्म-फल सिद्धान्त भी स्वतः अव्यवहारिक हो गया। ऐसा इस कारण से कि ईश्वर ही मनुष्य आदि प्राणियों के कर्मों का साक्षी होता है और वही सब कर्मों का सुख व दुःख रुपी फल देता है।
कर्म स्वतः तो किसी मनुष्य को सुख व दुःख दे नहीं सकते। भारत में उत्पन्न मत-मतान्तरों की भांति विद्या की अनुपस्थिति में सुदूर विदेशों में भी पारसी, ईसाई आदि मतों की स्थापना हुई।
सन् 1863 में ऋषि दयानन्द जी का देश में धर्म प्रचार के क्षेत्र में आगमन हुआ था। उन्होंने सत्य ज्ञान की खोज की थी। इस खोज को करते हुए वह ज्ञान व विद्याओं के मूल वेदज्ञान तक जा पहुंचे थे।
वेदाध्ययन करने के बाद उनको यह स्पष्ट हुआ था वेद ही ईश्वरीय ज्ञान है जो सृष्टि की आदि में संसार के रचयिता सर्वव्यापक ईश्वर ने चार आदि ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य एवं अंगिरा को दिया था।
वेदों में सभी विद्याओं का बीज रूप में उल्लेख वा वर्णन है। वेदों का अध्ययन कर व उससे उपलब्ध ज्ञान से ऋषि दयानन्द की पूर्ण सन्तुष्टि हुई थी।
इसके बाद सत्यार्थप्रकाश में उन्होंने सभी मतों की वेदों व वैदिक मान्यताओं के साथ तुलना कर उसका कुछ भाग साधारण जनों के लिये विचारार्थ एवं सत्य व असत्य का निर्णय करने के लिये प्रस्तुत किया था।
सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ से वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का ज्ञान मिलने के साथ मत-मतान्तरों की अविद्या, अज्ञान, अन्धविश्वासों एवं मिथ्या परम्पराओं सहित उनकी देश व समाज के लिए अहितकर मान्यताओं का भी ज्ञान होता है।
मत-मतान्तरों के कारण ही लोगों में परस्पर विरोध की वृद्धि होती है जिससे अशान्ति व वैमनस्य में वृद्धि होकर लोगों की हानि होती है।
यदि यह मत-मतान्तर न होते और संसार में केवल एक सत्य-मत जो कि वैदिक मत का पर्याय है, ही विद्यमान होता, तो संसार के लोगों में न केवल परस्पर मैत्री व बन्धुत्व की भावना विद्यमान होती
अपितु सब सत्य व उचित विधि से ईश्वरोपासना करते जिससे उन्हें आध्यात्मिक सुखों के साथ जन्म-जन्मान्तर में सुख व मोक्ष आदि की प्राप्ति होती।
वेदेतर मतों को मानने से ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन होता है जिससे जीवात्माओं को दुःख भोगना पड़ता है। महर्षि दयानन्द ने अपने प्रचार व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों के माध्यम से जिस सत्य का प्रकाश किया था,
मत-मतान्तरों में फंसे लोगों ने अपने अज्ञान व स्वार्थों के कारण उस पर ध्यान नहीं दिया जिसका परिणाम यह है कि अविद्यायुक्त मत-मतान्तर सर्वत्र फल फूल रहे हैं।
इसका एक कारण आर्यसमाज के प्रचार व प्रसार की शिथिलता भी है। प्रचार व प्रसार में शिथिलता का कारण आर्यसमाज का दुर्बल संगठन है।
सत्य मान्यताओं वा वैदिक सिद्धान्तों को न मानने के कारण मत-मतान्तरों के अनुयायी जन्म-जन्मान्तर में मिलने वाले सुखों सहित मोक्ष प्राप्ति से वंचित हो रहे हैं।
दिन प्रतिदिन मत-मतान्तरों के मध्य संघर्ष को बढ़ते हुए भी देख रहे हैं। यह भी देखने को मिल रहा है कि हमारे शिक्षित एवं विज्ञान से जुड़े लोग भी पशु-पक्षियों के प्रति संवेदनाओं से शून्य है।
प्रतिदिन असंख्य पशुओं व पक्षियों की विश्व में हत्या की जाती है और इसका कारण लोगों के मांसाहार की प्रवृत्ति है जिसमें शिक्षित कहे जाने वाले बुद्धिमान लोग भी होते हैं।
ऋषि दयानन्द ने मांसाहार को मनुष्य का स्वाभाविक भोजन स्वीकार नहीं किया है। उनके अनुसार मनुष्य का भोजन वही पदार्थ हो सकते हैं जो बिना हिंसा व दूसरे प्राणियों को कष्ट दिये प्राप्त होते हैं।
उनके अनुसार मनुष्य का भोजन गोदुग्ध, मौसम के फल, बादाम, काजू, छुआरे, किसमिस, अखरोट आदि सूखे फल सहित अन्न, वनस्पतियां, शहद आदि होते हैं।
मांसाहारी मनुष्य की प्रवृत्ति हिंसक हो जाती है जिससे वह योग विद्या जैसे विषय में अभ्यास करने पर भी सफलता प्राप्त नहीं करता।
वैदिक काल के हमारे सभी ऋषि पूर्ण अहिंसक होते थे और बड़ी-बड़ी साधनायें एवं तप करके आध्यात्मिक उपलब्धियों को प्राप्त करते थे।
आज भी हमारे पास अनेक साधु-संन्यासी हैं जो पूर्ण शाकाहारी हैं, स्वस्थ एवं सुखी जीवन व्यतीत कर रहे हैं और लम्बी आयु में भी अनेक प्रकार के जप, तप एवं यज्ञ आदि साधनाओं में अपना समय व्यतीत करते हैं।
ऐसे लोग वस्तुतः धन्य हैं। इनका वर्तमान भी सुखद एवं कल्याण से युक्त है और मृत्यु के पश्चात भी इनका जीवन सुखों एवं ईश्वरीय आनन्द से युक्त होगा, ऐसा कर्म-फल सिद्धान्त के आधार पर अनुमान किया जा सकता है।
इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य को अपने लौकिक एवं पारलौकिक जीवन को सुखी व विद्या से सम्पन्न करने के लिये वैदिक मत का अनुसरण करना चाहिये क्योंकि वैदिक मत में ही ईश्वर व जीवात्मा का सत्य स्वरूप उपलब्ध होने के साथ ईश्वर की प्राप्ति के लिये की जाने वाली साधना का भी सुगम मार्ग उपलब्ध है।
जब हम अपने वेदेतर मत-मतान्तर के बन्धुओं के धार्मिक कहे जाने वाले आयोजनों में जाते हैं और वहां किये जाने वाले कर्मकाण्ड व धार्मिक कृत्यों व विधियों को देखते हैं तो हमें उन क्रियाओं में वैचारिक सूझबूझ का अभाव परिलक्षित होता है।
हम लोगों को लाउडस्पीकर पर अपने-अपने धार्मिक ग्रन्थों के वचनों को बोलते हुए सुनते हैं। जो लोग वहां होते हैं वह भी उनको देखकर उनका अनुकरण करते हैं।
वह यह भूल जाते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी सत्ता है जो हमारे हृदयों के भीतर विद्यमान है। धार्मिक क्रियाओं का उद्देश्य उस ईश्वर का जानना व उसे प्राप्त करना होता है।
उसे प्राप्त करने के लिये उसके गुण, कर्म, स्वभाव वा स्वरूप का निरन्तर चिन्तन करना होता है। ईश्वर के ओ३म् नाम व गायत्री मंत्र का अर्थ सहित जप करना होता है।
ऐसा करने से ईश्वर भक्त के प्रति अपनी दया, करुणा, प्रेम व स्नेह को प्रदर्शित करते हैं और उसे सुखानुभूति कराते हैं। भक्त उपासना करते हुए परमात्मा से कुछ मांगता नहीं है अपितु अपने कर्तव्य की पूर्ति करते हुए ईश्वर की जन्म-जन्मान्तरों से मिल रही कृपाओं के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर रहा होता है।
उपासना करने पर ईश्वर भक्त की आत्मा के दोषों को दूर कर उसे भद्र व कल्याण को प्रदान करते हैं। उपासक असत्याचरण छोड़ कर सत्य का आचरण करता है।
वह समाज व दूसरों के लिये हितकर व कल्याण के कार्यों को करता है। उनके दुःखों में उनका सहयोगी बनता है।
ईश्वरोपासना से उपासक अपनी आत्मा को शुद्ध व पवित्र करता है और अग्निहोत्र यज्ञादि से वह वायु, जल एवं पर्यावरण की शुद्धि करता है।
इससे उसे व समाज के लोगों को लाभ मिलता है। अग्निहोत्र-यज्ञ कर्म की महिमा अपरम्पार है। यज्ञ से असंख्य मनुष्यों एवं सूक्ष्म प्राणियों को भी लाभ होता है।
यज्ञ की सुगन्ध से दूर-दूर तक मनुष्य व इतर प्राणी लाभान्वित होते हैं। इस यज्ञ-कर्म का यज्ञकर्ता को परमात्मा की ओर से जो फल प्राप्त होता है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
यज्ञ करने का परिणाम हमेशा सुखद होता है। लाभ की दृष्टि से सभी मत-मतान्तरों के अनुयायियों को यज्ञ को अपनाना चाहिये था परन्तु पक्षपात एवं स्वहित की भावना के कारण अन्य मत-मतान्तरों ने यज्ञ को अपनाया नहीं है।
हमारा ज्ञान व अनुभव है कि यज्ञ को विधि विधान से केवल वैदिक धर्मी आर्यसमाजी लोग ही करते हैं। वह वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थ दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, रामायण तथा महाभारत सहित सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि शताधिक वा सहस्रों ग्रन्थों को पढ़ते हैं।
अतः सभी मतों को अपने कर्मकाण्डों, विधि-विधानों पर सत्यासत्य की दृष्टि से विचार करने के साथ अपने आहार पर भी मानवीय, दया एवं करुणा के भावों को सम्मुख रखकर विचार करना चाहिये।
अनावश्यक एवं अविधि वाले कर्मों को न कर अपने गुण, कर्म व स्वभाव ईश्वर के अनुरूप बनाने का प्रयत्न करना चाहिये। सभी मनुष्यों को सत्कर्मों को ही करना चाहिये और दुष्टकर्मों का त्याग करना सभी मनुष्य का प्रमुख धर्म व कर्तव्य है।
किसी भी प्रकार का धार्मिक कृत्य पूजा व सामूहिक आयोजन करें तो विचार करें कि क्या इससे इष्ट लक्ष्य प्राप्त हो सकता है, इसके लिये उन्हें वैदिक विद्वानों की सम्मति भी लेनी चाहिये
और जो तर्क व युक्ति से उचित लगे, उसे ही अपनाना चाहिये। इससे मनुष्य को जन्म-जन्मान्तर में लाभ होगा। इस चर्चा को यहीं पर विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्यओ
“मत-मतान्तरों में सच्चे आध्यात्मिक ज्ञान का अभाव अनुभव होता है”
======================भारत वह देश है जहां के लोगों के पूर्वजों को सृष्टि के आरम्भ में ही परमात्मा ने ज्ञान विज्ञान से युक्त चार वेदों का ज्ञान दिया था। वेदों में सब सत्य विद्यायें मूल वा बीज रूप में विद्यमान हैं।
ईश्वर व जीवात्मा सहित कारण प्रकृति एवं कार्य प्रकृति के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान भी वेद एवं वेद की ऋषियों द्वारा की गई व्याख्याओं उपनिषद एवं दर्शन आदि ग्रन्थों में सुलभ होता है।
महाभारत युद्ध के समय व उसके कुछ समय बाद तक वेदज्ञान के अधिकारी विद्वान जिन्हें ऋषि कहा जा सकता है, भारत में बड़ी संख्या में विद्यमान रहे।
समय के साथ आर्यो-वैदिक धर्मियों में आलस्य व प्रमाद बढ़ता गया जिससे वेदों का अध्ययन व अध्यापन सुचारु से जारी न रह सका।
इस कारण देश में वेदों की अप्रवृत्ति से अज्ञान उत्पन्न होने लगा जिसका परिणाम देश में अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियां व सामाजिक बुराईयों का उत्पन्न होना हुआ।
महाभारत के कुछ वर्ष बाद हुए जैमिनी ऋषि पर ऋषि परम्परा समाप्त हो गई। उनके बाद ऋषि दयानन्द तक देश में वेदों का मर्मज्ञ व ईश्वर का साक्षात्कार किया हआ ऋषि उत्पन्न नहीं हुआ।
वेदों के अप्रचार व अध्ययन में रुकावट के कारण ईश्वर का सत्य स्वरूप भी धूमिल होता गया और यज्ञों में गाय, बकरी, भेड़ तथा अश्व आदि पशुओं की हिंसा की जाने लगी।
यज्ञों में हिंसा के कारण देश में बौद्ध मत की स्थापना हुई। कालान्तर में महावीर स्वामी जी के नाम पर जैन मत स्थापित हुआ। इन मतों में ईश्वर विषयक वैदिक ज्ञान का यथार्थ रूप में विधान नहीं है।
इस कारण इन मतों में अनेक वेद विरुद्ध अविद्यायुक्त मान्यतायें विद्यमान हैं। इन मतों में ईश्वर के वेदों व तर्कों से पुष्ट अस्तित्व को नकारा गया है।
जब ईश्वर को नकार दिया तो कर्म-फल सिद्धान्त भी स्वतः अव्यवहारिक हो गया। ऐसा इस कारण से कि ईश्वर ही मनुष्य आदि प्राणियों के कर्मों का साक्षी होता है और वही सब कर्मों का सुख व दुःख रुपी फल देता है।
कर्म स्वतः तो किसी मनुष्य को सुख व दुःख दे नहीं सकते। भारत में उत्पन्न मत-मतान्तरों की भांति विद्या की अनुपस्थिति में सुदूर विदेशों में भी पारसी, ईसाई आदि मतों की स्थापना हुई।
सन् 1863 में ऋषि दयानन्द जी का देश में धर्म प्रचार के क्षेत्र में आगमन हुआ था। उन्होंने सत्य ज्ञान की खोज की थी। इस खोज को करते हुए वह ज्ञान व विद्याओं के मूल वेदज्ञान तक जा पहुंचे थे।
वेदाध्ययन करने के बाद उनको यह स्पष्ट हुआ था वेद ही ईश्वरीय ज्ञान है जो सृष्टि की आदि में संसार के रचयिता सर्वव्यापक ईश्वर ने चार आदि ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य एवं अंगिरा को दिया था।
वेदों में सभी विद्याओं का बीज रूप में उल्लेख वा वर्णन है। वेदों का अध्ययन कर व उससे उपलब्ध ज्ञान से ऋषि दयानन्द की पूर्ण सन्तुष्टि हुई थी।
इसके बाद सत्यार्थप्रकाश में उन्होंने सभी मतों की वेदों व वैदिक मान्यताओं के साथ तुलना कर उसका कुछ भाग साधारण जनों के लिये विचारार्थ एवं सत्य व असत्य का निर्णय करने के लिये प्रस्तुत किया था।
सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ से वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का ज्ञान मिलने के साथ मत-मतान्तरों की अविद्या, अज्ञान, अन्धविश्वासों एवं मिथ्या परम्पराओं सहित उनकी देश व समाज के लिए अहितकर मान्यताओं का भी ज्ञान होता है।
मत-मतान्तरों के कारण ही लोगों में परस्पर विरोध की वृद्धि होती है जिससे अशान्ति व वैमनस्य में वृद्धि होकर लोगों की हानि होती है।
यदि यह मत-मतान्तर न होते और संसार में केवल एक सत्य-मत जो कि वैदिक मत का पर्याय है, ही विद्यमान होता, तो संसार के लोगों में न केवल परस्पर मैत्री व बन्धुत्व की भावना विद्यमान होती
अपितु सब सत्य व उचित विधि से ईश्वरोपासना करते जिससे उन्हें आध्यात्मिक सुखों के साथ जन्म-जन्मान्तर में सुख व मोक्ष आदि की प्राप्ति होती।
वेदेतर मतों को मानने से ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन होता है जिससे जीवात्माओं को दुःख भोगना पड़ता है। महर्षि दयानन्द ने अपने प्रचार व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों के माध्यम से जिस सत्य का प्रकाश किया था,
मत-मतान्तरों में फंसे लोगों ने अपने अज्ञान व स्वार्थों के कारण उस पर ध्यान नहीं दिया जिसका परिणाम यह है कि अविद्यायुक्त मत-मतान्तर सर्वत्र फल फूल रहे हैं।
इसका एक कारण आर्यसमाज के प्रचार व प्रसार की शिथिलता भी है। प्रचार व प्रसार में शिथिलता का कारण आर्यसमाज का दुर्बल संगठन है।
सत्य मान्यताओं वा वैदिक सिद्धान्तों को न मानने के कारण मत-मतान्तरों के अनुयायी जन्म-जन्मान्तर में मिलने वाले सुखों सहित मोक्ष प्राप्ति से वंचित हो रहे हैं।
दिन प्रतिदिन मत-मतान्तरों के मध्य संघर्ष को बढ़ते हुए भी देख रहे हैं। यह भी देखने को मिल रहा है कि हमारे शिक्षित एवं विज्ञान से जुड़े लोग भी पशु-पक्षियों के प्रति संवेदनाओं से शून्य है।
प्रतिदिन असंख्य पशुओं व पक्षियों की विश्व में हत्या की जाती है और इसका कारण लोगों के मांसाहार की प्रवृत्ति है जिसमें शिक्षित कहे जाने वाले बुद्धिमान लोग भी होते हैं।
ऋषि दयानन्द ने मांसाहार को मनुष्य का स्वाभाविक भोजन स्वीकार नहीं किया है। उनके अनुसार मनुष्य का भोजन वही पदार्थ हो सकते हैं जो बिना हिंसा व दूसरे प्राणियों को कष्ट दिये प्राप्त होते हैं।
उनके अनुसार मनुष्य का भोजन गोदुग्ध, मौसम के फल, बादाम, काजू, छुआरे, किसमिस, अखरोट आदि सूखे फल सहित अन्न, वनस्पतियां, शहद आदि होते हैं।
मांसाहारी मनुष्य की प्रवृत्ति हिंसक हो जाती है जिससे वह योग विद्या जैसे विषय में अभ्यास करने पर भी सफलता प्राप्त नहीं करता।
वैदिक काल के हमारे सभी ऋषि पूर्ण अहिंसक होते थे और बड़ी-बड़ी साधनायें एवं तप करके आध्यात्मिक उपलब्धियों को प्राप्त करते थे।
आज भी हमारे पास अनेक साधु-संन्यासी हैं जो पूर्ण शाकाहारी हैं, स्वस्थ एवं सुखी जीवन व्यतीत कर रहे हैं और लम्बी आयु में भी अनेक प्रकार के जप, तप एवं यज्ञ आदि साधनाओं में अपना समय व्यतीत करते हैं।
ऐसे लोग वस्तुतः धन्य हैं। इनका वर्तमान भी सुखद एवं कल्याण से युक्त है और मृत्यु के पश्चात भी इनका जीवन सुखों एवं ईश्वरीय आनन्द से युक्त होगा, ऐसा कर्म-फल सिद्धान्त के आधार पर अनुमान किया जा सकता है।
इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य को अपने लौकिक एवं पारलौकिक जीवन को सुखी व विद्या से सम्पन्न करने के लिये वैदिक मत का अनुसरण करना चाहिये क्योंकि वैदिक मत में ही ईश्वर व जीवात्मा का सत्य स्वरूप उपलब्ध होने के साथ ईश्वर की प्राप्ति के लिये की जाने वाली साधना का भी सुगम मार्ग उपलब्ध है।
जब हम अपने वेदेतर मत-मतान्तर के बन्धुओं के धार्मिक कहे जाने वाले आयोजनों में जाते हैं और वहां किये जाने वाले कर्मकाण्ड व धार्मिक कृत्यों व विधियों को देखते हैं तो हमें उन क्रियाओं में वैचारिक सूझबूझ का अभाव परिलक्षित होता है।
हम लोगों को लाउडस्पीकर पर अपने-अपने धार्मिक ग्रन्थों के वचनों को बोलते हुए सुनते हैं। जो लोग वहां होते हैं वह भी उनको देखकर उनका अनुकरण करते हैं।
वह यह भूल जाते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी सत्ता है जो हमारे हृदयों के भीतर विद्यमान है। धार्मिक क्रियाओं का उद्देश्य उस ईश्वर का जानना व उसे प्राप्त करना होता है।
उसे प्राप्त करने के लिये उसके गुण, कर्म, स्वभाव वा स्वरूप का निरन्तर चिन्तन करना होता है। ईश्वर के ओ३म् नाम व गायत्री मंत्र का अर्थ सहित जप करना होता है।
ऐसा करने से ईश्वर भक्त के प्रति अपनी दया, करुणा, प्रेम व स्नेह को प्रदर्शित करते हैं और उसे सुखानुभूति कराते हैं। भक्त उपासना करते हुए परमात्मा से कुछ मांगता नहीं है अपितु अपने कर्तव्य की पूर्ति करते हुए ईश्वर की जन्म-जन्मान्तरों से मिल रही कृपाओं के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर रहा होता है।
उपासना करने पर ईश्वर भक्त की आत्मा के दोषों को दूर कर उसे भद्र व कल्याण को प्रदान करते हैं। उपासक असत्याचरण छोड़ कर सत्य का आचरण करता है।
वह समाज व दूसरों के लिये हितकर व कल्याण के कार्यों को करता है। उनके दुःखों में उनका सहयोगी बनता है।
ईश्वरोपासना से उपासक अपनी आत्मा को शुद्ध व पवित्र करता है और अग्निहोत्र यज्ञादि से वह वायु, जल एवं पर्यावरण की शुद्धि करता है।
इससे उसे व समाज के लोगों को लाभ मिलता है। अग्निहोत्र-यज्ञ कर्म की महिमा अपरम्पार है। यज्ञ से असंख्य मनुष्यों एवं सूक्ष्म प्राणियों को भी लाभ होता है।
यज्ञ की सुगन्ध से दूर-दूर तक मनुष्य व इतर प्राणी लाभान्वित होते हैं। इस यज्ञ-कर्म का यज्ञकर्ता को परमात्मा की ओर से जो फल प्राप्त होता है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
यज्ञ करने का परिणाम हमेशा सुखद होता है। लाभ की दृष्टि से सभी मत-मतान्तरों के अनुयायियों को यज्ञ को अपनाना चाहिये था परन्तु पक्षपात एवं स्वहित की भावना के कारण अन्य मत-मतान्तरों ने यज्ञ को अपनाया नहीं है।
हमारा ज्ञान व अनुभव है कि यज्ञ को विधि विधान से केवल वैदिक धर्मी आर्यसमाजी लोग ही करते हैं। वह वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थ दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, रामायण तथा महाभारत सहित सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि शताधिक वा सहस्रों ग्रन्थों को पढ़ते हैं।
अतः सभी मतों को अपने कर्मकाण्डों, विधि-विधानों पर सत्यासत्य की दृष्टि से विचार करने के साथ अपने आहार पर भी मानवीय, दया एवं करुणा के भावों को सम्मुख रखकर विचार करना चाहिये।
अनावश्यक एवं अविधि वाले कर्मों को न कर अपने गुण, कर्म व स्वभाव ईश्वर के अनुरूप बनाने का प्रयत्न करना चाहिये। सभी मनुष्यों को सत्कर्मों को ही करना चाहिये और दुष्टकर्मों का त्याग करना सभी मनुष्य का प्रमुख धर्म व कर्तव्य है।
किसी भी प्रकार का धार्मिक कृत्य पूजा व सामूहिक आयोजन करें तो विचार करें कि क्या इससे इष्ट लक्ष्य प्राप्त हो सकता है, इसके लिये उन्हें वैदिक विद्वानों की सम्मति भी लेनी चाहिये
और जो तर्क व युक्ति से उचित लगे, उसे ही अपनाना चाहिये। इससे मनुष्य को जन्म-जन्मान्तर में लाभ होगा। इस चर्चा को यहीं पर विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्यओ
No comments:
Post a Comment