आर्यसमाज और विश्व की नारी जाति - वैदिक समाज जानकारी

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Tuesday, 26 November 2019

आर्यसमाज और विश्व की नारी जाति

आर्यसमाज और विश्व की नारी जाति 

आर्यसमाज और विश्व की नारी जाति
आर्यसमाज और विश्व की नारी जाति


                जहाँ - जहाँ आर्यसमाज है , वहाँ - वहाँ नारी जाति शिक्षित सशक्त होकर पूरे विश्व में शासन कर रही है । दूसरी ओर मुस्लिम देशों में नारी जाति गुलामी की जिन्दगी जी रही है । मुस्लिम नारी जाति को मुक्त कराने के लिए आर्यसमाज को बहुत कुछ करना शेष है । 

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वेदों का अध्ययन करके आर्यावर्त की पावन धरती पर सर्वप्रथम मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की , इसके अतिरिक्त भारतवर्ष के कोने - कोने में वेदों के प्रचार - प्रसार के लिए लाहौर ( वर्तमान स्थिति में पाकिस्तान है ) , मेरठ शहर , रुड़की , फरूखाबाद , दानापुर , पटना , काशी , कोलकाता और राजकोट इत्यादि शहरों में आर्यसमाज की स्थापना की ।

                 महर्षि की मत्यु के पश्चात् स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती , स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती , पं० लेखराम , पं० गुरुदत्त विद्यार्थी , ब्रह्मचारी नित्यानन्द विश्वेश्वरानन्द , लाला लाजपत राय इत्यादि हजारों आर्यजनों ने आर्यसमाज स्थापित किये ।


इनके सतत प्रयासों से आर्यसमाज के विचारों की अग्नि भारत देश में ही नहीं अपितु विदेशों में भी फैल गई , इंग्लैण्ड में वन्देमातरम् आर्यसमाज साऊथहाल में स्थित है । बर्मिघम , नौटिघम आदि शहरों में आर्यसमाज का उपवन किराये पर लेकर गिरजाघरों में भी होता रहता है ।

 इसके अतिरिक्त अफ्रीका , सरीनाम , ब्रिटिश ग्योना , हॉलैण्ड , फीजी , न्यूजीलैण्ड , ऑस्ट्रेलिया , बर्मा , थाइलैण्ड , सिंगापुर , अमेरिका , पाकिस्तान , बांग्लादेश , मॉरिशस इत्यादि देशों में आर्यसमाज सर्वत्र है , इन सब देशों में नारी जाति शासक वर्ग में है , सर्वत्र शासन कर रही हैं । 

महर्षि ने मानव मात्र के कल्याणार्थ और वेदों के प्रचार - प्रसार के लिये ' आर्यसमाज ' रूपी क्रान्तिकारी संस्था का सूत्रपात किया ।


     महर्षि दयानंद जी द्वारा नारी जाति के उत्थान का कार्य

                               महर्षि ने नारी जाति के उत्थान एवं विश्व कल्याण के लिए भारतवर्ष के बड़े - बड़े नगरों और शहरों में आर्यसमाज की नींव डाली । आर्यसमाज के मंच से मानवमात्र के कल्याण के लिये सिंह गर्जना की , आर्यजाति पद्दलित थी । 

                               मध्यकाल में शुद्र नारी जाति की दशा दयनीय थी , वेदों को पढ़ने और सुनने का अधिकार नहीं था , नारी जाति को सती प्रथा के नाम पर जलाया जाता था , ऐसे विकट संकट में महर्षि दयानन्द जी ने नारी जाति का उद्धार किया । नारी जाति की सब प्रकार से रक्षा की ।

                             महर्षि दयानन्द का सपना था कि पुरे विश्व में नारी जाति का ऊँचा स्थान हो , वेदों के आधार पर नारी जाति शिक्षित होकर सम्पूर्ण विश्व में वर्तमान में आदर्श शासक बनकर आदर्श स्थापित कर सकें । आज महर्षि का सपना साकार हो रहा है । 

                        जब महर्षि दयानन्द अज्ञानता और अन्धविश्वास को दूर करने के लिये निकले तो उन्होंने अनुभव किया कि जब तक नारी शिक्षित नहीं होगी , तब तक हमारा समाज भी अज्ञान के अन्धकार में भटकता रहेगा । मातृमान , पितृमान , आचार्यवान पुरुषों वेद के अनुसार उन्होंने माता को प्रथम गुरु बताया ।

                             उनकी प्रेरणा से कन्या गुरुकुलों की स्थापना की गई । स्त्रियाँ जो अब तक घर की चारदीवारी में बन्द थी , अब पर्दा छोड़कर शिक्षा प्राप्त करने के लिये घरों से बाहर निकलीं । स्वामी जी ने कहा कि स्त्री और पुरुष दोनों समान शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं । दोनों के अधिकार समान हैं ।

                           स्वामी जी से पहले हमारे देश के धार्मिक नेताओं का कहना था कि वेद पढ़ने का अधिकार केवल सवर्ण पुरुषों को ही है , स्त्रियाँ तथा निम्न जाति के लोग वेद नहीं पढ़ सकते स्त्री शूद्रौ नाधीयाताम् । परन्तु स्वामी जी ने इसका विरोध किया । 

                            वे स्त्री जाति को वैदिक काल वाली उन्नत और उच्च पदवी देना चाहते थे , जिसमें सती साध्वी मातायें देश का मान थीं । स्वामी जी ने कहा कि चाहे कोई स्त्री हो या शूद्र जाति का व्यक्ति हो , सभी वेद पढ़ सकते हैं । 

                           यह सब स्वामी जी के प्रयास का ही परिणाम है कि आज महिलायें पुरुषों के साथ मिलकर देवयज्ञ करती हैं और वेदमन्त्रों का सस्वर पाठ करती हैं । महर्षि दयानन्द का समय सामाजिक चेतना का समय था । उस समय राजा राममोहन राय सती प्रथा तथा विधवा विवाह के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे ।

                       महर्षि स्वामी दयानन्द ने नारी के सर्वागीण विकास पर बल दिया । उस समय बाल विवाह होते थे , जिससे छोटी अवस्था में कन्यायें माँ बन जाती थीं । 

                                स्वामी जी ने बाल विवाह की भर्त्सना की और सोलह साल से कम आयु की लड़कियों के विवाह को अनुचित बताया । इसके अतिरिक्त उन्होंने विधवा विवाह को भी प्रोत्साहन दिया । उन्होंने वैदिक आदर्शों को पुनः स्थापित किया । वेदों में नारी की स्थिति अत्यन्त उच्च , गौरवमयी और पूजास्पद है । 

                       तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि वेदों में जैसी गौरवस्पद स्थिति नारी को प्राप्त है , वैसी संसार के अन्य किसी धर्मग्रन्थ में नहीं मिलती । वेद में उसे पति के समकक्ष रखा गया है । जैसे पत्नी के लिए पति आदर और स्नेह के योग्य है , वैसे ही पत्नी भी पति के लिए सम्मान और स्नेह की पात्रा है ।

                               वेद की दृष्टि में पत्नी ही वस्तुतः घर है । वेद में पति और पत्नी दोनों को दम्पती ( दम - पति , अर्थात् घर के स्वामी ) कहा गया है । ' वैदिक इंडैक्स ' के लेखक मैकडॉनल और कीथ इस शब्द के विवरण में लिखते हैं कि द्विवचनान्त रूप में पति - पत्नी दोनों के लिए ' दम्पति ' शब्द का प्रयोग यह सूचित करता है कि ऋग्वेद के समय तक पत्नी पति - गृह में दासी बनकर नहीं , प्रत्युत सम्राज्ञी बनकर आती है । 

                            वह केवल पति की दृष्टि में ही नहीं वरन सास , श्वसुर , देवर , ननद सबकी दृष्टि में सम्राज्ञी होती है । पति उसकी सुख - सुविधा का पूरा ध्यान रखता है । वह उसके प्रति अपना उत्तरदायित्व समझता हुआ कहता है कि तुम मेरे साथ रहती हुई सन्तान और धन किसी भी दृष्टि से कष्ट अनुभव नहीं करोगी ।

                                तुम मेरी आय का अपहरण मत करना , मैं तुम्हारी आयु का अपहरण नहीं करूँगा । तुम गृहाश्रम को पूर्ण बनाना , इसमें पैदा होनेवाले छिद्रों को भरना और अविचल होकर रहना । मैं तुम्हें हृदय में रखने के लिए ग्रहण करता है ।

                           पत्नी को वह सत्य की विधात्री मानता है । वह कामना करता है कि सब देव हम दोनों को एक कर दें , हम दोनों के हृदय ऐसे एक हो जाएँ जैसे पानी में मिलकर पानी एक हो जाता है । इस प्रकार पतिगृह में प्रत्येक सदस्य की दृष्टि में नव - वध उच्च सिंहासन पर आसीन है ।

                           समाज का भी नव - वधू को आशीर्वाद है कि वह मङ्गलमयी और सुखमयी होती हुई पति गृह में विशेष शोभा को प्राप्त करें । समाज उसे यशोमयी , कर्मण्य और सत्यं - शिवं - सुन्दरम् का आदर्श मानता है ।

                  वेद में नारी की अपनी उक्तियाँ भी उसे दीन - हीन नहीं , अपितु गृहाश्रम की पताका , गृहाश्रम - रूप शरीर का मस्तक और शत्रुओं से लोहा लेनेवाली वीराङ्गना सिद्ध करती हैं । अगले प्रकरणों में जो सामग्री दी गई है , उससे भी वैदिक नारी अत्यन्त उज्वल , प्रतापमयी , पति और सन्तानों के जीवन को ऊँचा उठानेवाली , सौहार्दमयी और यशोमयी के रूप में प्रकट होती है ।

                            एक बात यह ध्यान देने योग्य है कि वेदों में जो पथिवी . उषा , नदी और गाय के वाची नाम हैं , वे प्रायः नारी के वाचक भी हैं । वे सभी नारी की उच्चता और विविध गण गरिमा पर प्रकाश डालते हैं , यथा - पृथिवीवाची नामों में गौ , क्षमा , क्षिति , अवनि , उवीं और मही शब्द नारी के भी वाचक होते हुए क्रमशः नारी की गमनशीलता ( कर्मण्यता ) , क्षमाशीलता . निवासक शक्ति , रक्षक शक्ति , विशालता और पूज्यता को सूचित करते हैं । 

कन्या भ्रूण हत्या तथा दहेज रूपी कुप्रथा

                                समाज में आज कन्या भ्रूण हत्या का महापाप प्रचलित हो गया है , जिसका मुख्य कारण नारी जाति का समाज में उचित सम्मान न होना , दहेज जैसी कुरीतियों का होना , समाज में बलात्कार जैसी घटनाओं का बढ़ना , चरित्र दोष आदि जिससे नारी जाति की रक्षा कर पाना कठिन हो जाना आदि मुख्य कारण हैं ।

                             कुछ का तर्क देना है कि वेद नारी को हीन दृष्टि से देखते हैं और वेदों में सर्वत्र पुत्र ही माँगे गए हैं , पुत्रियों की कामना नहीं की गयी हैं , लेकिन यह आरोप निराधार हैं । वेदों के प्रमाण जिनमें नारी की यश गाथा का वर्णन है मेरे पुत्र शत्रु हन्ता हों और पुत्री भी तेजस्वनी हो ।

                              यज्ञ करनेवाले पति - पत्नी और कुमारियोंवाले होते हैं । प्रति प्रहर हमारी रक्षा करने वाला पूषा परमेश्वर हमें कन्याओं का भागी बनायें अर्थात् कन्या प्रदान करें । हमारे राष्ट्र में विजयशील सभ्य वीर युवक पैदा हों , वहाँ साथ ही बुद्धिमती नारियों के उत्पन्न होने की भी प्रार्थना हैं ।

                                 जैसा यश कन्या में होता है , वैसा यश मुझे प्राप्त हो । । वेदों में पत्नी को उषा के समान प्रकाशवती , वीरांगना , वीर प्रसवा , विद्या अलंकृता , स्नेहमयी माँ , पतिव्रता , अन्नपूर्णा , सद्गृहणी , सम्राज्ञी आदि से सम्बोधित किया गया है जो निश्चित रूप से नारी जाति को उचित सम्मान प्रदान करते हैं ।

                              दहेज का सही अर्थ न समझकर आज धन के लोभ में हजारों नारियों को निर्दयता से आग में जला कर भस्म कर दिया जाता है । इसका मुख्य कारण दहेज शब्द के सही अर्थ को न जानना है । वेदों में दहेज शब्द का सही अर्थ है पिता ज्ञान , विद्या , उत्तम संस्कार आदि गुणों के साथ वधु को वर को भेंट करें । 

                            आज समाज अगर नारी की महत्ता जैसी वेदों में कही गयी है , उसको समझे तो निश्चित रूप से सभी का कल्याण होगा । वैदिक काल में नारी जाति को यज्ञ में भाग लेने का अधिकार था जिसे मध्य काल में वर्जित कर दिया गया । नारी का स्थान यज्ञवेदी से बाहर है अथवा कन्या और युवती अग्निहोत्र की होता नहीं बन सकती । 

     वेद में नारी/स्त्री को यज्ञ करने का अधिकार

                                     वेद नारी जाति को यज्ञ में भाग लेने का पूर्ण अधिकार देते हैं । ऋग्वेद में कहा गया है कि जो पति - पत्नी समान मनवाले होकर यज्ञ करते हैं उन्हें अन्न , पुष्प , हिरण्य आदि की कमी नहीं रहती । विवाह यज्ञ में वर वध उच्चारण करते हुए एक दूसरे का हृदय - स्पर्श करते हैं ।

                          विद्वान लोग पत्नी सहित यज्ञ में बैठते हैं और नमस्करणीय को नमस्कार करते हैं । इस प्रकार यजुर्वेद में , अथर्ववेद में भी यज्ञ में नारी के भाग लेने के स्पष्ट प्रमाण हैं । ऋग्वेद में स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ अर्थात् स्त्री यज्ञ की ब्रह्मा बनें कहा गया है । 

                         स्वामी दयानन्द ने स्त्रीशूद्रो नाधियातामिति श्रुतेः स्त्री और शूद्र न पढ़े यह श्रुति है , को नकारते हुए वैदिक काल की गागी , सुलभा , मैत्रयी , कात्यायनी आदि सशिक्षित स्त्रियों का वर्णन किया , जो ऋषि - मुनियों की शंकाओं का समाधान करती थी । 

             वेद में नारी को शिक्षा का अधिकार

                                   ऋग्वेद का भाष्य करते हुए स्वामी दयानन्द लिखते हैं राजा ऐसा यत्न करें जिससे सब बालक और कन्याएँ ब्रह्मचर्य से विद्यायुक्त होकर समृद्ध को प्राप्त हो सत्य , न्याय और धर्म का निरन्तर सेवन करें । राजा को प्रयत्न पूर्वक अपने राज्य में सब स्त्रियों को विदुषी बनाना चाहिए । 

                            विद्वानों को यही योग्यता है कि सब कुमार और कुमारियों को सभ्य बनावे , जिससे सब विद्या के फल को प्राप्त होकर सुमति हों । वेद कहते हैं कि जितनी कुमारी हैं वे विदुषियों से विद्या अध्ययन करें और वे कुमारी ब्रह्मचारिणी उन विदुषियों से ऐसी प्रार्थना करें की आप हम सबको विद्या और सुशिक्षा से युक्त करें ।

                            इस प्रकार यजुर्वेद एवं ऋग्वेद में भी नारी को शिक्षा का अधिकार दिया गया है । वेदों के विषय में एक भ्रम यह भी फैलाया गया है कि वेदों में बहुविवाह की अनुमति दी गयी है । ऋग्वेद १० । ८५ को विवाह सूक्त के नाम से जाना जाता है ।

                          इस सूक्त के मन्त्र ४२ में कहा गया है कि तुम दोनों इस संसार व गृहस्थ आश्रम में सुखपूर्वक निवास करो । तुम्हारा कभी परस्पर विरोध न हो । सदा प्रसन्नतापूर्वक अपने घर में रहो । इससे आगे भी घोषणा की गई है कि हम दोनों ( वर वधू ) सब विद्वानों के सम्मुख घोषणा करते हैं कि हम दोनों के हृदय जल के समान शान्त और परस्पर मिले हुए रहेंगे । 

             अथर्ववेद में पति पत्नी के मुख से कहलाया गया है कि तुम मुझे अपने हृदय में बैठा लो , हम दोनों का मन एक ही हो जाये । पत्नी कहती है कि तुम केवल मेरे बनकर रहो । अन्य स्त्रियों का कभी कीर्तन व व्यर्थ प्रशंसा आदि भी न करो । 

वेद में बहुविवाह का निषेध......

                          ऋग्वेद में बहुविवाह की निंदा करते हुए वेद कहते हैं जिस प्रकार रथ का घोड़ा दोनों धराओं के मध्य में दबा हआ चलता है , वैसे ही एक समय में दो स्त्रियाँ करनेवाला पति दबा हुआ होता है अर्थात् परतंत्र हो जाता है ।

 इसलिए एक समय में दो व अधिक पत्नियाँ करना उचित नहीं है । इस प्रकार वेदों में बहुविवाह के विरुद्ध स्पष्ट उपदेश हैं । 

वेद में बालविवाह का निषेध

                           वेद बाल विवाह के विरुद्ध हैं । हमारे देश पर विशेषकर मुस्लिम आक्रमण के पश्चात बाल विवाह की करीति को समाज ने अपना लिया जिससे न केवल ब्रह्मचर्य आश्रम लुप्त हो गया , बल्कि शरीर का सही ढंग से विकास न होने के कारण एवं छोटी उम्र में माता पिता बन जाने से संतान भी कमजोर पैदा होती गयी , जिससे हिन्दू समाज दुर्बल से दुर्बल होता गया । 

               अथर्ववेद के ब्रह्मचर्य सूक्त १११५ के १८वें मन्त्र में कहा गया है कि ब्रह्मचर्य ( सादगी , संयम और तपस्या ) का जीवन बिता कर कन्या युवा पति को प्राप्त करती है । युवा पति से ही विवाह करने का प्रावधान बताया गया है , जिससे बाल विवाह करने की मनाही स्पष्ट सिद्ध होती है । 

                          ऋग्वेद में वर वधू मिलकर संतान उत्पन्न करने की बात कह रहे हैं । वधू वर से मिलकर कह रही है कि तू पुत्र काम है अर्थात् तू पुत्र चाहता है वर वधू से कहता है कि तू पुत्र कामा है अर्थात् तू पुत्र चाहती है । अत : हम दोनों मिलकर उत्तम संतान उत्पन्न करें । 

                                 पुत्र उत्पन्न करने की कामना युवा पुरुष और युवती नारी में ही उत्पन्न हो सकती हैं । छोटे - छोटे बालक और बालिकाओं में नहीं ।  इसी भाँति अथर्ववेद में भी परस्पर युवक और युवती एक दूसरे को प्राप्त करके कह रहे हैं कि मैं पतिकामा अर्थात् पति की कामना वाली और यह तू जनीकामा अर्थात् पत्नी की कामना वाला दोनों मिल गए हैं ।

                       युवा अवस्था में ही पति - पत्नी की कामना की इच्छा हो सकती है छोटे - छोटे बालक और बालिकाओं में नहीं । इस प्रकार हम देखते हैं कि वेदों में नारी को गौरव प्राप्त है । 

                वेदों में नारी की महिमा से हमारे संस्कार आज भी गौरवान्वित हैं । संसार की किसी भी धर्म पुस्तक में नारी की महिमा का इतना सुन्दर गुणगान नहीं मिलता , जितना वेदों में मिलता है । वेदों में नारी को उषा के समान प्रकाशवती कहा गया है । 

                                  हे राष्ट्र की पूजा योग्य नारी ! तुम परिवार और राष्ट्र में सत्यम , शिवम् , सन्दरम् की अरुण कान्तियों को छिटकती हुई आओ , अपने विस्मयकारी सद्गुणों के द्वारा अविद्या ग्रस्त जनों को प्रबोध प्रदान करो । जन - जन को सुख देने के लिए अपने जगम करते हुए रथ पर बैठ कर आओ ।

                    वेदों में नारी को वीरांगना कहा गया है । वे कहते हैं कि हे नारी ! तू स्वयं को पहचान । तू शेरनी है , तू शत्रु रूप मृगों का मर्दन करनेवाली है , देवजनों के हितार्थ अपने अन्दर सामर्थ्य उत्पन्न कर । हे नारी ! तू अविद्या आदि दोषों पर शेरनी की तरह टूटने वाली है , तू दिव्य गुणों के प्रचारार्थ स्वयं को शुद्ध कर ।

                                   हे नारी ! तू दुष्कर्म एवं दुर्व्यसनों को शेरनी के समान विश्वस्त करनेवाली है , धार्मिक जनों के हितार्थ स्वयं को दिव्य गुणों से अलंकृत कर । वीर प्रसवा कहते हुए वेद कहते हैं कि हमारे राष्ट्र को ऐसी अद्भुत एवं वर्षक संतान प्राप्त हो , जो उत्कष्ट कोटि के हथियारों को चलाने में कुशल हो , उत्तम प्रकार से अपनी तथा दूसरों की रक्षा करने में प्रवीण हो , 

 सम्यक नेतृत्व करने वाले हो , धर्म - अर्थ - काम - मोक्ष रूप चार परुषार्थ - समद्रों का अवगाहन करनेवाली हो , विविध सम्पदाओं की धारक हो , अतिशय क्रियाशील हो , प्रशंशनीय हो , बहतों से वरणीय हो , आपदाओं  की निवारक हो । 

                              विद्या अलंकृता बताते हुए वेद कहते हैं कि विदुषी नारी अपने विद्या - बलों से हमारे जीवनों को पवित्र करती रहे । वह कर्मनिष्ठ बनकर अपने कर्मों से हमारे व्यवहारों को पवित्र करती रहे । अपने श्रेष्ठ ज्ञान एवं कर्मों के द्वारा संतानों एवं शिष्यों में सद्गुणों और सत्कर्मों को बसाने वाली वह देवी गह आश्रम ' यज्ञ एवं ज्ञान ' यज्ञ को सुचारू रूप से संचालित करती रहे ।

                                स्नेहमयी माँ कहते हुए वेद कहते हैं कि हे प्रेमरसमयी माँ ! तुम हमारे लिए मंगल कारिणी बनो , तुम हमारे लिए शान्ति बरसाने वाली बनो , तुम हमारे लिए उत्कृष्ट सुख देने वाली बनो । हम तुम्हारी कपा - दृष्टि से कभी वंचित न हों ।

                                     वेद में नारी को अन्नपूर्ण बताते हुए कहा गया है कि इस गह आश्रम में पष्टि प्राप्त हो . इस ग्रह आश्रम में रस प्राप्त हो । इस गृह आश्रम में हे देवी ! तू दूध - घी आदि सहस्त्रों पोषक पदार्थों का दान कर । हे यम - नियमों का पालन करने वाली गहणी ! जिन गाय आदि पश से पोषक पदार्थ प्राप्त होते हैं उनका त पोषण कर ।

                                 वेदों से प्रेरणा लेकर मनु महाराज ने सही ही कहा है कि जिस कल में नारियों कि पूजा , अर्थात् सत्कार होता है , उस कुल में दिव्यगुण , दिव्य भोग और उत्तम संतान होते हैं और जिस कुल में स्त्रियों कि पूजा नहीं होती , वहाँ जानो उनकी सब क्रियाएँ निष्फल हैं ।

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