स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती - वैदिक समाज जानकारी

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Saturday, 21 December 2019

स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती

ओ३म्
-आज 72वें जन्म दिवस पर-

‘आर्यों के प्रेरणास्रोत और श्रद्धास्पद स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती’

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परम पिता परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया था। इसका प्रयोजन था कि विश्व की मनुष्य जाति अपने जीवन के कल्याण के लिए वेद प्रतिपादित धर्म एवं संस्कृति को अपनाये

 तथा धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति के मार्ग का अनुसरण करे। ईश्वर प्रदर्शित वेदमार्ग पर चलने के लिए वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन व ज्ञान आवश्यक है।

वेदों के ज्ञान के लिए आर्ष संस्कृत व्याकरण का अध्ययन भी आवश्यक है अन्यथा वेद भाष्य व टीकाओं का सहारा लेना पड़ता है जिससे वेदों व वैदिक साहित्य का पूरा-पूरा अभिप्राय विदित नहीं होता।

महाभारत युद्ध के बाद संस्कृत व्याकरण व शिक्षा के अध्ययन-अध्यापन में अनेक कारणों से व्यवधान आया। महर्षि दयानन्द ने उन सब व्यवधानों को दूर कर वैदिक शिक्षा का उद्धार किया

 जिसका परिणाम आज देश भर में चल रहे सहस्राधिक गुरुकुल हैं जहां संस्कृत व्याकरण और वैदिक साहित्य का अध्ययन कराया जाता है।

 लगभग 3 व कुछ अधिक वर्षों में संस्कृत व्याकरण का अध्ययन पूरा किया जा सकता है जिससे अध्येता में वह योग्यता प्राप्त हो जाती है कि

वह वेद सहित संस्कृत के प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन कर उनमें अन्तर्निहित विद्या, ज्ञान व इनके रहस्यों से परिचित होकर जीवन को ज्ञान मार्ग पर चलाकर जीवन को सफल बना सकता है।

आज आर्यजगत के एक शीर्ष संन्यासी, ऋषि एवं वेदभक्त, सतत कर्मशील, अनेक गुरूकुलों के प्रणेता तथा वैदिक जीवन मूल्यों के धारणकर्त्ता, तपस्वी एवं सभी ऋषिभक्तों को सम्मान देने वाले महात्मा स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी का 73 वां जन्म दिवस है।

स्वामीजी आर्यजगत् के सभी विद्वानों व वैदिक धर्म प्रेमियों के प्रेरणा स्रोत, श्रद्धास्पद एवं वैदिक धर्म एवं संस्कृति को चिरस्थाई स्थायी बनाने के लिये गुरुकुलों की स्थापना एवं उनके पोषण की गौरवमय परम्परा का निर्वाह करने वाले एक धर्मात्मा हैं।

 आपने वेद विद्या के निरन्तर विकास व उन्नति को अपने जीवन का लक्ष्य बनाकर देश भर में आठ गुरूकुलों की स्थापना कर अपने यश व कीर्ति को सर्वत्र स्थापित किया है।

आपके स्तुत्य प्रयासों से वेद विद्या का विकास व उन्नति निरन्तर हो रही है और इससे नये-नये विद्वान, प्रचारक, लेखक, शोधार्थी व पुरोहित आदि तैयार होकर वैदिक धर्म की पताका को देश व विदेश में लहलहा रहे हैं।

आपके पुरुषार्थ से गुरूकुलों से प्रत्येक वर्ष शताधिक स्नातक समाज को प्राप्त हो रहे हैं जो देश के विद्यालयों व महाविद्यालयों में शिक्षा देकर सभ्य व श्रेष्ठ नागरिक प्रदान कर रहे हैं।

स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती का संन्यास ग्रहण करने से पूर्व का नाम आचार्य हरिदेव था। आपका जन्म 7 जुलाई, सन् 1947 अर्थात् आषाढ़ शुक्ला द्वितीया संवत् 1904 को हरियाणा के जनपद भिवानी के ग्राम गौरीपुर में माता श्रीमति समाकौर आर्या और पिता श्री टोखराम आर्य जी के परिवार में हुआ था।

 आप तीन भाईयों में सबसे छोटे हैं। जब आप लगभग 14 वर्ष के थे, तब आर्यजगत के विख्यात आचार्य भगवानदेव जी ने, जो बाद में संन्यास लेकर स्वामी ओमानन्द सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए, दादरी में आर्य युवकों का एक शिविर लगाया था।

 आप उस शिविर में पहुंचें तथा वहां अल्पकाल रहकर वैदिक विचारधारा से प्रभावित हुए। स्वामी ओमानन्द जी ने भी आपको पहचाना और गुरूकुल झज्जर में अध्ययन करने की प्रेरणा की।

 इससे प्रभावित होकर स्वामी प्रणवानन्द जी ने गुरूकुल झज्जर जाकर अध्ययन किया और वहां से व्याकरणाचार्य की दीक्षा ली। आपने कुछ समय तक गुरूकुल कालवां रहकर अध्ययन कराया।

महात्मा बलदेव जी भी इसी गुरूकुल में अध्यापन करते थे। यह वही गुरूकुल हैं जहां वर्तमान के स्वामी रामदेव जी विद्यार्थी में रहे हैं। इस गुरूकुल में रहते हुए आपने मासिक पत्रिका ‘‘वैदिक विजय” का सम्पादन भी किया।

आप हरयाणा में स्वामी इन्द्रवेश जी के नेतृत्व में कार्यरत आर्यसभा में भी प्रचारक के रूप में रहे। इन्हीं दिनों आपने हरियाणा के नगर यमुनानगर में प्रसिद्ध विद्वान स्वामी आत्मानन्द द्वारा स्थापित आर्यजगत् की प्रमुख संस्था उपदेशक महाविद्यालय, शादीपुर में अध्यापन कार्य किया।

देश में आपातकाल लगने पर आप हरिद्वार आ गये और गुरूकुल कांगड़ी में वेद से एम0ए0 करने के लिए प्रवेश लिया।

 आप गुरूकुल कांगड़ी में अध्ययन के साथ-साथ आप अवधूत मण्डल, हरिद्वार की संस्कृत पाठशाला में अध्यापन भी कराया करते थे। इस संस्था का वर्तमान नाम ‘श्री भगवानदास संस्कृत महाविद्यालय’ है।

गुरूकुल झज्जर के अध्ययनकाल में आपने जीवन भर नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहकर वैदिक धर्म व संस्कृति की सेवा करने का व्रत लिया था जिसे आप सफलतापूर्वक निभा रहे हैं।

जिन दिनों आप हरिद्वार में अध्ययन व अध्यापनरत थे, उन दिनों दिल्ली में स्वामी सच्चिदानन्द योगी गुरूकुल गौतमनगर का संचालन कर रहे थे।

गुरूकुल की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। योगी जी की प्रेरणा से आपने इसके संचालन का दायित्व सम्भाला और अपने पुरुषार्थ से इसे सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ाया।

इसके बाद आप ने एक के बाद एक गुरुकुलों की स्थापना कर गुरुकुलों की संख्या 8 कर दी है। वर्तमान में आप 8 गुरूकुलों का संचालन कर रहे हैं।

 सभी गुरूकुल सन्तोषप्रद रूप से चल रहे हैं। सबके पास अपने भवन, यज्ञ शालायें, गोशालायें और खेलने के मैदान हैं। वर्तमान समय में आपने 8 गुरुकुल स्थापित करके आर्यजगत में एक रिकार्ड कायम किया है।

यह उल्लेखनीय है कि गुरूकुलों में बच्चों से नाम-मात्र का ही शुल्क लिया जाता है। 20 से 30 प्रतिशत बच्चे निःशुल्क ही शिक्षा प्राप्त करते हैं।

स्वामी प्रणवानन्द जी देश के विभिन्न स्थानों पर 8 गुरूकुलों का संचालन कर रहें हैं। पांच वर्ष पहले स्वामी जी ने केरल के सुदूर क्षेत्र में एक गुरूकुल स्थापित किया है जो सफलतापूर्वक चल रहा है।

 इसके अतिरिक्त उड़ीसा में दो, छत्तीसगढ्, हरयाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश में भी गुरूकुल चल रहे हैं। देहरादून का गुरूकुल पौंधा आपने जून, सन् 2000 में स्थापित किया था जो आचार्य डा. धनंजय एवं श्री चन्द्रभूषण शास्त्री जी के मार्गदर्शन में प्रगति कर रहा है।

गुरुकुल पौंधा देश के अग्रणीय गुरूकुलों में एक है। जब यह गुरूकुल स्थापित हुआ, तभी हमारा स्वामी प्रणवानन्द जी से परिचय व सम्पर्क हुआ। इस गुंरूकुल से जुड़कर हमारे सामाजिक दायरे का विस्तार हुआ है।

हम आशा करते हैं कि यह गुरूकुल आने वाले समय में देश को वैदिक धर्म व संस्कृति के उच्च कोटि के वेद प्रचारक प्रदान करेगा जो देश व विदेश में वेदों के ध्वज ओ३म् पताका को पूरे भूमण्डल पर लहलहायेंगे।

स्वामी प्रणवानन्द जी द्वारा संचालित गुरूकलों में गुरूकुल गौतम नगर, दिल्ली सभी 8 गुरूकुलों का केन्द्रीय गुरूकुल है जहां लगभग 200 ब्रह्मचारी वेद विद्या के अंग

 शिक्षा, व्याकरण, कल्प, निरूक्त, ज्योतिष व छन्द तथा उपांगों सांख्य, योग, वैशेषिक, वेदान्त, न्याय एवं मीमांसा आदि ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं।

 यह कार्य ही वस्तुतः वैदिक धर्म को सुरक्षित रखने व इसका दिग्दिन्त प्रचार करने का प्रमुख उपाय है। यदि देश व आर्यसमाज में गुरुकुल न हों,

तो हम वेदों के प्रचार व प्रसार की कल्पना नहीं कर सकते। संस्कृत के अध्ययन व अध्यापन से ही वेदों की रक्षा हो सकती है और वेदों की रक्षा से से ही वैदिक धर्म का प्रचार व प्रसार हो सकता है।

स्वामी प्रणवाननन्द सरस्वती ने वेदों के प्रचार प्रसार को अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य बनाकर महर्षि दयानन्द के मिशन को पूरा करने का निष्काम, श्लाघनीय व वन्दनीय कार्य किया है।

वैदिक गुरूकुलों में अध्ययनरत ब्रह्मचारियों की शिक्षा की व्यवस्था के लिए सभी आर्यों को तन-मन-धन से सहयोग करना चाहिये।

इसी से महर्षि दयानन्द का स्वप्न साकार हो सकता है। ईश्वर भी वेदों का प्रचार व प्रसार चाहता है जिसके लिए उसने सृष्टि के आरम्भ में वेदों का ज्ञान दिया था और अब भी वह उत्तम कार्यों को करने तथा हानिकारक कर्मों को छोड़ने की प्रेरणा करता रहता है।

वेद एवं वैदिक परम्परा नदियों एवं मठ मन्दिरों को तीर्थ नहीं मानती। उसके अनुसार गुरूकुल जैसे स्थान ही सही अर्थों में सच्चे तीर्थ होते हैं जहां सच्चे साधु, महात्मा व विद्वान जनता का उपदेश द्वारा मार्गदर्शन करने के लिए उपलब्ध रहते हैं।

स्वामी जी के गुरुकुलों में प्रत्येक वर्ष वार्षिकोत्सवों के आयोजन होते रहते हैं  जिसमें आर्यजगत के उच्च कोटि के विद्वानों, संन्यासियों व भजनोपदेशकों का आगमन होता है।

इन वार्षिकोत्सवों में पहुंच कर सभी ऋषि भक्तों को तीर्थ से होने वाले विद्व़ानों व महात्माओं के उपदेश व सत्संग के लाभों को प्राप्त कर अपने जीवन को धन्य करना चाहिये।

स्वामीजी को उनके 72 वें जन्म दिवस पर हार्दिक बधाई। ईश्वर की कृपा से वह सदा स्वस्थ रहें और शतायु होवें। आज ही स्वामी प्रणवानन्द जी के गुरू और

 वैदिक विद्वान, उच्च कोटि के अनेक ग्रन्थों के लेखक और सामवेद भाष्यकार यशस्वी डा. रामनाथ वेदालंकार जी का भी जन्म दिवस है। हम उन्हें भी अपनी श्रद्धाजंलि अर्पित करते हैं। इन्ही पंक्तियों के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

-मनमोहन कुमार आर्य

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