ओ३म्
ऋषिभक्त शब्द-वाक्य प्रमाणज्ञ पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी की शिष्या वेद विदुषी डॉ0 प्रज्ञादेवी जी वाराणसी स्थित ‘पाणिनी कन्या महाविद्यालय’ की संस्थापिका एवं आचार्या थी।
आपने एक लघु पुस्तिका ‘स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश-व्याख्यानमाला’ की रचना की है। यह पुस्तक नवम्बर, 1987 में प्रकाशित हुई थी।
इस पुस्तक में लिखे डॉ0 प्रज्ञा जी के कुछ विचारों को हम यहां प्रस्तुत कर रहें हैं। उन्होंने लिखा है-
‘वेद ज्ञान से शून्य पतन के गर्त्त में पड़े हुए अज्ञानान्धकाररूपी महारोग से आक्रान्त इस देश की सही चिकित्सा के सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द का दृष्टिकोण इतनी दृढ़ आस्थाओं से परिपूर्ण एवं जगमगाते शीशे के समान स्पष्ट है कि उसके समक्ष किसी भी वैकल्पिक स्वरूप का स्थान ही नहीं रहता।
वेद ज्ञान सत्य है तो सदैव सबके लिये प्रत्येक परिस्थिति में सर्वमान्य है। इससे विरुद्ध असत्य है तो वह सदैव सबके लिये प्रत्येक परिस्थिति में अमान्य है।
इसमें कोई विकल्प नहीं कि महर्षि दयानन्द की यह सुदृढ़ आस्था ही रोगाक्रान्त तत्कालीन देश की महौषधि थी।
अपनी बात की सुपुष्टि में महर्षि दयानन्द ने तर्कों और प्रमाणों की झड़ी लगा दी। ‘नान्या ओषधिः विद्यते सुरक्षणाय’ बस महर्षि का तो यही अटल सिद्धान्त रहा जिसके आधार पर सुधारवाद की सम्पूर्ण व्यूह रचना हुई।
उस स्पष्टवादी साहसी निर्भीक दयानन्द ने समझौतावाद को तो लेशमात्र कहीं भी स्वीकारा ही नहीं किन्तु एक और बहुत बड़ी विशेषता उस दयानन्द की यह रही कि
अपने द्वारा मान्य सिद्धान्तों एवं अमान्य भ्रामक विचारों का स्पष्ट डंके की चोट संकलन भी कर दिया जो ‘‘स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश” के नाम से प्रख्यात है।
ऋषि दयानन्द से इतर इतिहास में शायद ही कोई ऐसा सुधारवादी उत्पन्न हुआ हो जिसने अपने प्रखर सिद्धान्तों की रक्षा को ही जीवन मरण का प्रश्न बनाया हो और उन सिद्धान्तों को लिपिबद्ध कर उसके सत्यस्वरूप को आदित्य-प्रभा सम स्पष्ट कर दिया हो।
वाह रे दयानन्द! तुझे कभी किसी प्रलोभन ने विचलित नहीं किया। तुझे कितनी चिन्ता और पीड़ा थी रोगग्रस्त समाज को स्वस्थ करने की? वेद-ज्ञान का सच्चा मार्ग बताकर तूने जो हमारा कल्याण किया उसे हम अधम कभी कैसे भुला पायेंगे!!!’
हम आशा करते हैं कि उपर्युक्त पंक्तियों में प्रस्तुत डॉ0 प्रज्ञादेवी जी के विचार आपको अच्छे लगेंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
“ऋषि दयानन्द ने वेद-ज्ञान का सच्चा मार्ग बताकर हमारा कल्याण किया. हम अधम मनुष्य ऋषि के उपकारों को कभी नहीं भुला सकते : डॉ0 प्रज्ञा देवी”
===============ऋषिभक्त शब्द-वाक्य प्रमाणज्ञ पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी की शिष्या वेद विदुषी डॉ0 प्रज्ञादेवी जी वाराणसी स्थित ‘पाणिनी कन्या महाविद्यालय’ की संस्थापिका एवं आचार्या थी।
आपने एक लघु पुस्तिका ‘स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश-व्याख्यानमाला’ की रचना की है। यह पुस्तक नवम्बर, 1987 में प्रकाशित हुई थी।
इस पुस्तक में लिखे डॉ0 प्रज्ञा जी के कुछ विचारों को हम यहां प्रस्तुत कर रहें हैं। उन्होंने लिखा है-
‘वेद ज्ञान से शून्य पतन के गर्त्त में पड़े हुए अज्ञानान्धकाररूपी महारोग से आक्रान्त इस देश की सही चिकित्सा के सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द का दृष्टिकोण इतनी दृढ़ आस्थाओं से परिपूर्ण एवं जगमगाते शीशे के समान स्पष्ट है कि उसके समक्ष किसी भी वैकल्पिक स्वरूप का स्थान ही नहीं रहता।
वेद ज्ञान सत्य है तो सदैव सबके लिये प्रत्येक परिस्थिति में सर्वमान्य है। इससे विरुद्ध असत्य है तो वह सदैव सबके लिये प्रत्येक परिस्थिति में अमान्य है।
इसमें कोई विकल्प नहीं कि महर्षि दयानन्द की यह सुदृढ़ आस्था ही रोगाक्रान्त तत्कालीन देश की महौषधि थी।
अपनी बात की सुपुष्टि में महर्षि दयानन्द ने तर्कों और प्रमाणों की झड़ी लगा दी। ‘नान्या ओषधिः विद्यते सुरक्षणाय’ बस महर्षि का तो यही अटल सिद्धान्त रहा जिसके आधार पर सुधारवाद की सम्पूर्ण व्यूह रचना हुई।
उस स्पष्टवादी साहसी निर्भीक दयानन्द ने समझौतावाद को तो लेशमात्र कहीं भी स्वीकारा ही नहीं किन्तु एक और बहुत बड़ी विशेषता उस दयानन्द की यह रही कि
अपने द्वारा मान्य सिद्धान्तों एवं अमान्य भ्रामक विचारों का स्पष्ट डंके की चोट संकलन भी कर दिया जो ‘‘स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश” के नाम से प्रख्यात है।
ऋषि दयानन्द से इतर इतिहास में शायद ही कोई ऐसा सुधारवादी उत्पन्न हुआ हो जिसने अपने प्रखर सिद्धान्तों की रक्षा को ही जीवन मरण का प्रश्न बनाया हो और उन सिद्धान्तों को लिपिबद्ध कर उसके सत्यस्वरूप को आदित्य-प्रभा सम स्पष्ट कर दिया हो।
वाह रे दयानन्द! तुझे कभी किसी प्रलोभन ने विचलित नहीं किया। तुझे कितनी चिन्ता और पीड़ा थी रोगग्रस्त समाज को स्वस्थ करने की? वेद-ज्ञान का सच्चा मार्ग बताकर तूने जो हमारा कल्याण किया उसे हम अधम कभी कैसे भुला पायेंगे!!!’
हम आशा करते हैं कि उपर्युक्त पंक्तियों में प्रस्तुत डॉ0 प्रज्ञादेवी जी के विचार आपको अच्छे लगेंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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