ओ३म्
स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी आर्यजगत् के उच्चकोटि के विद्वान थे। वह अच्छे प्रभावशाली वक्ता एवं आर्य नेता भी थे। स्वामी जी आर्य कालेज, पानीपत के प्राचार्य रहे।
उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘खट्टी मिट्ठी यादें’ नाम से लिखी है। स्वामी जी ने वेदों पर भी अनेक प्रामाणिक ग्रन्थ यथा ‘वेद मीमांसा’आदि लिखे हैं वहीं ऋषि दयानन्द के सभी प्रमुख ग्रन्थों पर भाष्य, व्याख्या व टीकाओं सहित अनेक मौलिक ग्रन्थ भी लिखे हैं।
सत्यार्थप्रकाश पर उन्होंने सत्यार्थ-भास्कर, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पर भूमिका-भास्कर तथा संस्कार-विधि पर संस्कार भास्कर टीकायें लिखकर उन्होंने एक अभूतपूर्व कार्य किया है। हैं।
स्वामी जी ने गोकरूणानिधि सहित ऋषि दयानन्द के अन्य लघु ग्रन्थों पर भी विस्तृत व्याख्यायें व टीकायें लिखी हैं। आज हम स्वामी विद्यानन्द सरस्वती द्वारा महर्षि दयानन्द की पुस्तक ‘अद्वैतमत-खण्डन’ पर लिखे गये व्याख्या ग्रन्थ की भूमिका में लिखे गये कुछ भाग को आपके लिये प्रस्तुत कर रहे हैं
जिनमें दर्शन, धर्म, अद्वैतमत, नास्तिक मत एवं वैदिक त्रैतवाद पर प्रकाश पड़ता है। हमें स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी के यह विचार अच्छे लगे हैं। इसी कारण हम इन्हें यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।
स्वामी विद्यानन्द सरस्वती लिखते हैं कि भारत की वैचारिक परम्परा में दर्शन व धर्म एक दूसरे के पूरक हैं। दर्शन की नींव पर ही धर्म का भवन खड़ा किया जाता है।
‘दृशिर् प्रेक्षणे’ धातु से दर्शन शब्द निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है-‘दृश्यते ज्ञायते सत्यमनेनेति दर्शनम्’ अर्थात् जिससे सत्य को जाना जा सके, इस ऊहापोहरूपी सन्नियत विचार श्रृंखला को ‘दर्शन’ कहते हैं।
इस दार्शनिक सत्य का धारण करना व उसका जीवन में कार्यान्वित होना ‘धर्म’ है। दर्शन का सम्बन्ध विचार से है, धर्म का आचार से। इस प्रकार दर्शन का प्रायोगिक अथवा व्यावहारिक रूप धर्म है।
दर्शन व धर्म के इस घनिष्ठ सम्बन्ध के कारण ही हमारे यहां वेद, उपनिषद्, गीता आदि दार्शनिक ग्रन्थ भी हैं और धार्मिक भी।
चमत्कारों में विश्वास रखनेवाला व्यक्ति ही संसार को किसी मायावी की लीला मान सकता है। सृष्टि के रंगमंच पर किसी के हाथ की कठपुतली बन कर नाचनेवाले हम नहीं है।
हमारे जीवन का कोई लक्ष्य है। अदृश्य शक्ति से प्रेरणा पाकर हमें कुछ बनना है। संसार को पहले से ही स्वप्नवत् मिथ्या समझनेवाले के लिए तत्वज्ञान का कोई अर्थ नहीं।
किन्तु मनुष्य सृष्टि के आरम्भ से ही तत्वदर्शी रहा है। यदि वह संसार को मिथ्या मानता होता तो वह अपने सर्वतोन्मुखी ज्ञान की अभिवृद्धि करते रहने में सिर क्यों खपाता? सृष्टि में अभिव्यक्त ऋत और सत्य को जानकर ही मनुष्य अभ्युदय तथा निःश्रेयस् को प्राप्त करता है।
साधारणतः धर्म विषयक जिज्ञासा ही चित्त को ब्रह्म के प्रति जिज्ञासा के लिए तैयार करती है। ऐसे व्यक्ति जो सीधे ब्रह्म-जिज्ञासा में तत्पर हो जाते हैं, उन्होंने पूर्वजन्म में अपेक्षित कर्तव्यों का पालन किया होता है।
कर्मोत्पत्ति के लिए कारण-सामग्री का पूर्ववर्ती होना आवश्यक है। दृश्य जगत् कार्यरूप है। अतः जगत् के मूल कारण अथवा तत्व की खोज में दार्शनिकों की रुचि सदा से रही है।
वह मूलतत्व क्या है जिसका यह जगत् रूपान्तर मात्र है। दृश्यमान जगत् में हम चेतन तथा अचेतन दोनों प्रकार की सत्ताओं का अनुभव करते हैं।
एक विचारधारा के अनुसार जगत् का एकमात्र मूलतत्व अचेतन है। अवस्था विशेष में आकर वही विकसित होकर चैतन्य में परिवर्तित हो जाता है। चेतन नाम की पृथक् तथा स्वतन्त्र सत्ता रखने वाली कोई वस्तु नहीं है।
भारतीय दर्शन में यह विचारधारा उसके संस्थापक बृहस्पति तथा उसके महान् प्रचारक चार्वाक के नाम से प्रसिद्ध है। भारतीय विचारधारा से प्रभावित प्राचीन यूनानी दर्शन को
छोड़कर, पश्चिम का सम्पूर्ण दर्शन, जो हेगेल और कार्ल माक्स जैसे भौतिक तत्वज्ञों के सहारे आधुनिक पाश्चात्य दर्शन के रूप में विकसित हुआ है, इसी विचारधारा का पोषक है। सर्वथा समान न होते हुए भी चार्वाक तथा वर्तमान पाश्चात्य दर्शन मूलतः एक हैं।
दूसरी विचारधारा के अनुसार एकमात्र यथार्थ सत्ता चेतन ब्रह्म है। उससे भिन्न अन्य कोई तत्व अपना अस्तित्व नहीं रखता। यह जो जड़ एवं चेतन जगत् दृष्टिगोचर हो रहा है, उसकी अपनी वास्तविक व स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।
एकमात्र ब्रह्मतत्व ही विभिन्न रूपों में भासता है। इस विचारधारा को पल्लवित व पुष्पित करने का श्रेय आचार्य शंकर को है।
उन्होंने कुछ प्राचीन ग्रन्थों को इसका आधार बनाया और इसी के अनुकूल उनकी व्याख्या की। उनमें वेदान्तदर्शन (ब्रह्मसूत्र), 11 उपनिषद् और गीता विशेषरूप से उल्लेखनीय है।
तीसरी विचारधारा के अनुसार चेतन व अचेतन दोनों प्रकार के तत्वों की वास्तविक सत्ता है और दोनो ंके सहयोग से ही सृष्टि-रचना का कार्य संभव है।
चेतन तत्व दो हैं-जीवात्मा और परमात्मा। अचेतन तत्व प्रकृति अथवा प्रधान के नाम से जाना जाता है। यह वैदिक विचारधारा है। जिसका निर्देश एवं संकेत वेद के अनेक सूक्तों व मन्त्रों में उपलब्ध होता है।
इन विचारों को दर्शन के रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय प्राचीन काल में महर्षि कपिल को और चिरकाल से तिरोहित इस विचारधारा को वर्तमान में प्रवहमान करने का श्रेय महर्षि दयानन्द को है।
स्वामी जी द्वारा लिखी भूमिका अति विस्तृत है। भूमिका में लिखा गया प्रत्येक शब्द एवं वाक्य महत्वपूर्ण है। भूमिका सहित इस पुस्तक को सभी धर्म एवं सत्य के जिज्ञासुओं को अवश्य पढ़ना चाहिये।
यह बता दें कि इस पुस्तक का प्रकाशन सन् 1995 में वैदिक साहित्य के प्रमुख प्रकाशक श्री प्रभाकरदेव आर्य जी ने ‘मुनिवर गुरुदत्त संस्थान, हिण्डोन सिटी (राजस्थान)’ से किया था।
पुस्तक में कुल 64 पृष्ठ हैं एवं मूल्य 20 रुपये अंकित है। हमें लगता है कि ऋषि दयानन्द जी पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने स्वामी शंकराचार्य के अद्वैत-मत का प्रमाण पुरस्सर खण्डन किया है।
उन्होंने यह भी बताया है कि ईश्वर, जीव तथा प्रकृति संसार में तीन अनादि व नित्य पदार्थ हैं। यह सृष्टि परमात्मा की रचना है जिसका उपादान कारण प्रकृति है।
इस सृष्टि की रचना परमात्मा के द्वारा जीवों के पूर्वकल्प के कर्मों के फलों का भोग कराने के लिये की गई है। जीवात्मा का लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति है।
ऋषि दयानन्द के सभी धार्मिक विचार दार्शनिक सत्यासत्य के विवेचन पर आधारित होने से सत्यान्वेषी विद्वत जगत् में सर्वग्राह्य एवं सर्वमान्य हैं।
यहीं कारण है कि धर्म का सच्चा जिज्ञासु व पिपासु वैदिक मत व आर्यसमाज की विचारधारा को आत्मसात कर ही तृप्त होता है।
हम आशा करते हैं कि पाठक स्वामी विद्यानन्द जी के इस लेख में प्रस्तुत विचारों को पसन्द करेंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
दर्शन, धर्म तथा ईश्वर-जीव-प्रकृति नामी अनादि तत्वों पर स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी का गहन निश्चयात्मक चिन्तन
=========स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी आर्यजगत् के उच्चकोटि के विद्वान थे। वह अच्छे प्रभावशाली वक्ता एवं आर्य नेता भी थे। स्वामी जी आर्य कालेज, पानीपत के प्राचार्य रहे।
उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘खट्टी मिट्ठी यादें’ नाम से लिखी है। स्वामी जी ने वेदों पर भी अनेक प्रामाणिक ग्रन्थ यथा ‘वेद मीमांसा’आदि लिखे हैं वहीं ऋषि दयानन्द के सभी प्रमुख ग्रन्थों पर भाष्य, व्याख्या व टीकाओं सहित अनेक मौलिक ग्रन्थ भी लिखे हैं।
सत्यार्थप्रकाश पर उन्होंने सत्यार्थ-भास्कर, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पर भूमिका-भास्कर तथा संस्कार-विधि पर संस्कार भास्कर टीकायें लिखकर उन्होंने एक अभूतपूर्व कार्य किया है। हैं।
स्वामी जी ने गोकरूणानिधि सहित ऋषि दयानन्द के अन्य लघु ग्रन्थों पर भी विस्तृत व्याख्यायें व टीकायें लिखी हैं। आज हम स्वामी विद्यानन्द सरस्वती द्वारा महर्षि दयानन्द की पुस्तक ‘अद्वैतमत-खण्डन’ पर लिखे गये व्याख्या ग्रन्थ की भूमिका में लिखे गये कुछ भाग को आपके लिये प्रस्तुत कर रहे हैं
जिनमें दर्शन, धर्म, अद्वैतमत, नास्तिक मत एवं वैदिक त्रैतवाद पर प्रकाश पड़ता है। हमें स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी के यह विचार अच्छे लगे हैं। इसी कारण हम इन्हें यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।
स्वामी विद्यानन्द सरस्वती लिखते हैं कि भारत की वैचारिक परम्परा में दर्शन व धर्म एक दूसरे के पूरक हैं। दर्शन की नींव पर ही धर्म का भवन खड़ा किया जाता है।
‘दृशिर् प्रेक्षणे’ धातु से दर्शन शब्द निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है-‘दृश्यते ज्ञायते सत्यमनेनेति दर्शनम्’ अर्थात् जिससे सत्य को जाना जा सके, इस ऊहापोहरूपी सन्नियत विचार श्रृंखला को ‘दर्शन’ कहते हैं।
इस दार्शनिक सत्य का धारण करना व उसका जीवन में कार्यान्वित होना ‘धर्म’ है। दर्शन का सम्बन्ध विचार से है, धर्म का आचार से। इस प्रकार दर्शन का प्रायोगिक अथवा व्यावहारिक रूप धर्म है।
दर्शन व धर्म के इस घनिष्ठ सम्बन्ध के कारण ही हमारे यहां वेद, उपनिषद्, गीता आदि दार्शनिक ग्रन्थ भी हैं और धार्मिक भी।
चमत्कारों में विश्वास रखनेवाला व्यक्ति ही संसार को किसी मायावी की लीला मान सकता है। सृष्टि के रंगमंच पर किसी के हाथ की कठपुतली बन कर नाचनेवाले हम नहीं है।
हमारे जीवन का कोई लक्ष्य है। अदृश्य शक्ति से प्रेरणा पाकर हमें कुछ बनना है। संसार को पहले से ही स्वप्नवत् मिथ्या समझनेवाले के लिए तत्वज्ञान का कोई अर्थ नहीं।
किन्तु मनुष्य सृष्टि के आरम्भ से ही तत्वदर्शी रहा है। यदि वह संसार को मिथ्या मानता होता तो वह अपने सर्वतोन्मुखी ज्ञान की अभिवृद्धि करते रहने में सिर क्यों खपाता? सृष्टि में अभिव्यक्त ऋत और सत्य को जानकर ही मनुष्य अभ्युदय तथा निःश्रेयस् को प्राप्त करता है।
साधारणतः धर्म विषयक जिज्ञासा ही चित्त को ब्रह्म के प्रति जिज्ञासा के लिए तैयार करती है। ऐसे व्यक्ति जो सीधे ब्रह्म-जिज्ञासा में तत्पर हो जाते हैं, उन्होंने पूर्वजन्म में अपेक्षित कर्तव्यों का पालन किया होता है।
कर्मोत्पत्ति के लिए कारण-सामग्री का पूर्ववर्ती होना आवश्यक है। दृश्य जगत् कार्यरूप है। अतः जगत् के मूल कारण अथवा तत्व की खोज में दार्शनिकों की रुचि सदा से रही है।
वह मूलतत्व क्या है जिसका यह जगत् रूपान्तर मात्र है। दृश्यमान जगत् में हम चेतन तथा अचेतन दोनों प्रकार की सत्ताओं का अनुभव करते हैं।
एक विचारधारा के अनुसार जगत् का एकमात्र मूलतत्व अचेतन है। अवस्था विशेष में आकर वही विकसित होकर चैतन्य में परिवर्तित हो जाता है। चेतन नाम की पृथक् तथा स्वतन्त्र सत्ता रखने वाली कोई वस्तु नहीं है।
भारतीय दर्शन में यह विचारधारा उसके संस्थापक बृहस्पति तथा उसके महान् प्रचारक चार्वाक के नाम से प्रसिद्ध है। भारतीय विचारधारा से प्रभावित प्राचीन यूनानी दर्शन को
छोड़कर, पश्चिम का सम्पूर्ण दर्शन, जो हेगेल और कार्ल माक्स जैसे भौतिक तत्वज्ञों के सहारे आधुनिक पाश्चात्य दर्शन के रूप में विकसित हुआ है, इसी विचारधारा का पोषक है। सर्वथा समान न होते हुए भी चार्वाक तथा वर्तमान पाश्चात्य दर्शन मूलतः एक हैं।
दूसरी विचारधारा के अनुसार एकमात्र यथार्थ सत्ता चेतन ब्रह्म है। उससे भिन्न अन्य कोई तत्व अपना अस्तित्व नहीं रखता। यह जो जड़ एवं चेतन जगत् दृष्टिगोचर हो रहा है, उसकी अपनी वास्तविक व स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।
एकमात्र ब्रह्मतत्व ही विभिन्न रूपों में भासता है। इस विचारधारा को पल्लवित व पुष्पित करने का श्रेय आचार्य शंकर को है।
उन्होंने कुछ प्राचीन ग्रन्थों को इसका आधार बनाया और इसी के अनुकूल उनकी व्याख्या की। उनमें वेदान्तदर्शन (ब्रह्मसूत्र), 11 उपनिषद् और गीता विशेषरूप से उल्लेखनीय है।
तीसरी विचारधारा के अनुसार चेतन व अचेतन दोनों प्रकार के तत्वों की वास्तविक सत्ता है और दोनो ंके सहयोग से ही सृष्टि-रचना का कार्य संभव है।
चेतन तत्व दो हैं-जीवात्मा और परमात्मा। अचेतन तत्व प्रकृति अथवा प्रधान के नाम से जाना जाता है। यह वैदिक विचारधारा है। जिसका निर्देश एवं संकेत वेद के अनेक सूक्तों व मन्त्रों में उपलब्ध होता है।
इन विचारों को दर्शन के रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय प्राचीन काल में महर्षि कपिल को और चिरकाल से तिरोहित इस विचारधारा को वर्तमान में प्रवहमान करने का श्रेय महर्षि दयानन्द को है।
स्वामी जी द्वारा लिखी भूमिका अति विस्तृत है। भूमिका में लिखा गया प्रत्येक शब्द एवं वाक्य महत्वपूर्ण है। भूमिका सहित इस पुस्तक को सभी धर्म एवं सत्य के जिज्ञासुओं को अवश्य पढ़ना चाहिये।
यह बता दें कि इस पुस्तक का प्रकाशन सन् 1995 में वैदिक साहित्य के प्रमुख प्रकाशक श्री प्रभाकरदेव आर्य जी ने ‘मुनिवर गुरुदत्त संस्थान, हिण्डोन सिटी (राजस्थान)’ से किया था।
पुस्तक में कुल 64 पृष्ठ हैं एवं मूल्य 20 रुपये अंकित है। हमें लगता है कि ऋषि दयानन्द जी पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने स्वामी शंकराचार्य के अद्वैत-मत का प्रमाण पुरस्सर खण्डन किया है।
उन्होंने यह भी बताया है कि ईश्वर, जीव तथा प्रकृति संसार में तीन अनादि व नित्य पदार्थ हैं। यह सृष्टि परमात्मा की रचना है जिसका उपादान कारण प्रकृति है।
इस सृष्टि की रचना परमात्मा के द्वारा जीवों के पूर्वकल्प के कर्मों के फलों का भोग कराने के लिये की गई है। जीवात्मा का लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति है।
ऋषि दयानन्द के सभी धार्मिक विचार दार्शनिक सत्यासत्य के विवेचन पर आधारित होने से सत्यान्वेषी विद्वत जगत् में सर्वग्राह्य एवं सर्वमान्य हैं।
यहीं कारण है कि धर्म का सच्चा जिज्ञासु व पिपासु वैदिक मत व आर्यसमाज की विचारधारा को आत्मसात कर ही तृप्त होता है।
हम आशा करते हैं कि पाठक स्वामी विद्यानन्द जी के इस लेख में प्रस्तुत विचारों को पसन्द करेंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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