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दर्शन किसे कहते हैं? |
-पं0 राजवीर शास्त्री के विचार-
‘दर्शन किसे कहते हैं?’
======पं0 राजवीर शास्त्री आर्यजगत के उच्च कोटि के सुप्रसिद्ध ऋषि भक्त विद्वान थे। वह आजीवन आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट से जुड़े रहे। आपने आर्यजगत की प्रमुख व प्रसिद्ध मासिक पत्रिका ‘दयानन्द सन्देश’ का सम्पादन किया वहीं आपने ट्रस्ट के माध्यम से अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का लेखन एवं सम्पादन भी किया।
आप संस्कृत के वृहद् ग्रन्थ ‘‘वैदिक कोष” के भी सम्पादक हैं। विशुद्ध-मनुस्मृति का भी आपने सम्पादन किया था। यह ग्रन्थ वैदिक साहित्य का अनूठा एवं अति उपयोगी ग्रन्थ है।
शास्त्री जी का एक ग्रन्थ पातंजल योग-दर्शन-भाष्यम् भी है। पांतजल योग दर्शन भाष्य का ट्रस्ट की ओर से प्रकाशित यह तीसरा संस्करण हैं। इसका प्रकाशकीय ट्रस्ट के यशस्वी मंत्री श्री धर्मपाल आर्य जी ने लिखा है।
ग्रन्थ के प्रथम संस्करण में प्रकाशित का प्राक्कथन को पुस्तक के पृष्ठ 9 से 37 तक प्रकाशित किया गया है। इसमें शास्त्री जी ने दर्शन किसे कहते है? इस विषय पर भी विचार किया है और इसका उत्तर भी दिया है।
दर्शन विषयक शास्त्री जी के इन विचारों को लेकर ही हम इस लेख के माध्यम से आपके सम्मुख उपस्थित हुए हैं। शास्त्री जी ने इस ग्रन्थ में योग दर्शन के सभी सूत्रों पर महर्षि व्यास का भाष्य देने सहित जिन सूत्रों पर ऋषि दयानन्द की व्याख्या उपलब्ध थी, उसे भी इस ग्रन्थ में सम्मिलित किया है।
भाष्य का क्रम इस प्रकार रखा है कि पहले सूत्र को प्रस्तुत कर उस पर महर्षि व्यास जी का भाष्य दिया है। इसके बाद सूत्र का अर्थ प्रस्तुत किया है।
सूत्रार्थ के बाद महर्षि दयानन्द जी की व्याख्या यदि उपलब्ध है, तो उसे प्रस्तुत किया है। सूत्रार्थ के बाद शास्त्री जी ने महर्षि व्यास के भाष्य का हिन्दी अनुवाद दिया है।
भाष्यानुवाद के बाद शास्त्री जी ने अपनी ज्ञानप्रसूता लेखनी से सूत्र एवं व्यास-भाष्य के आधार पर भावार्थ प्रस्तुत किया है। यह अति महत्वपूर्ण ग्रन्थ 568 पृष्ठों का है।
शास्त्री जी ने इस कार्य को करके एक अभाव की पूर्ति की है क्योंकि इस प्रकार का भाष्य इससे पूर्व व पश्चात किसी विद्वान द्वारा उपलब्ध नहीं किया जा सका। यह ग्रन्थ योगदर्शन के अध्येताओं के लिये अति महत्वपूर्ण है।
इस संक्षिप्त लेख में हम शास्त्री जी द्वारा प्राक्कथन में ‘दर्शन किसे कहते हैं?’ विषय पर प्रस्तुत विचारों को दे रहे हैं। शास्त्री जी के कहे गये शब्द निम्न हैं
‘सृष्टि के आरम्भ से ही मानव में जिज्ञासा और अन्वेषण की प्रवृत्ति रही है। मानव ने जब से इस धरातल पर अवतरण किया और अपने चक्षुओं का उन्मीलन किया,
तभी से वह अपने चारों तरफ के विद्यमान प्राकृतिक वस्तुओं, सूर्य, चन्द्रादि के व्यवस्थित भ्रमण, द्युलोकवर्ती असंख्य नक्षत्रमण्डल, सभी जीवों को कर्मानुसार सुख-दुःख की विचित्र व्यवस्था करनेवाले नियन्ता परमेश्वर आदि के विषय में जानने की इच्छा करता रहा है।
इस जिज्ञासा-वृत्ति प्राप्त करने के लिये किये गये अनवरत प्रयत्नों का ही यह फल है कि मानव ने लोक-लोकान्तरों में भी पहुंचने में सफलता प्राप्त कर ली है।
परन्तु प्राचीन ऋषि-मुनियों ने केवल भौतिक उन्नति से ही सन्तोष नहीं किया, प्रत्युत सूक्ष्मातिसूक्ष्म गूढ़तम जिन तत्वों को सतत-साधना तथा ईश्वर-आराधना से जानने में सफलता प्राप्त की थी, उसी यथार्थ-ज्ञान का नाम ‘दर्शन’ है।
‘दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम्।’ इस दर्शन शब्द की व्युत्पत्ति से भी यही स्पष्ट होता है कि सत्-असत् पदार्थों के ज्ञान को ही दर्शन कहते हैं। योगदर्शन तथा व्यास-भाष्य में ‘दर्शन’ शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में करते हुए लिखा है--
(क) परमार्थस्तु ज्ञानाददर्शनं निवर्त्तते।। (व्यासभा0 3/55)
(ख) एकमेव दर्शनं ख्यातिरेव दर्शनम्।। (व्यासभा0 2/24)
अर्थात् सत्यज्ञान से अदर्शन=अज्ञान की निवृत्ति हो जाती है। अथवा समस्तज्ञानों में सर्वोत्तम ज्ञान ख्याति=विवेकख्याति है।
सूत्रकार ने बुद्धि के लिये भी दर्शन शब्द का प्रयोग किया है--‘तच्चादर्शनं बन्धकारणं दर्शनान्निवर्त्तते।’ (योग0 2/24) यथार्थ में मानव जैसे जैसे तर्क और बुद्धि के द्वारा विविध समस्याओं का समाधान और दुःखों से निवृत्ति का उपाय सोचने का प्रयास करता है, वैसे-वैसे ही वह दर्शन के क्षेत्र में पहुंच जाता है।
संसार क्या है? इसको बनाने का क्या प्रयोजन है? इसको बनानेवाला कौन है? इत्यादि प्रश्नों का समाधान दर्शन ही करता है।’
हम आशा करते हैं कि दर्शन किसे कहते हैं?, इस शंका का सभी पाठकों का समाधान होगा। इस प्रस्तुति के माध्यम से हमें श्रद्धेय शास्त्री जी को स्मरण करने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ है। हम पं0 राजवीर शास्त्री जी की दिवंगत पवित्र आत्मा व स्मृति को नमन करते हैं।
-मनमोहन कुमार आर्य
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