ओ३म्
वैदिक धर्म ही सनातन धर्म है क्योंकि यह हर युग एवं कल्पकल्पान्तर के मनुष्यों का सद्धर्म रहा है व वर्तमान में भी है। वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जो अमैथुनी सृष्टि में चार ऋषियों की आत्मा में ईश्वर द्वारा अन्तःप्रेरणा के द्वारा दिया गया था।
वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद की कोई भी बात असत्य, अप्रमाणिक तथा सृष्टिक्रम के विरुद्ध नहीं है। वेद विद्या के ग्रन्थ हैं और अविद्या व अज्ञान आदि से सर्वथा मुक्त है।
वेद में इतिहास भी किंचित नहीं है। वेद के सभी शब्द व पद धातुज व यौगिक हैं जिनकी उत्पत्ति व अर्थ वेदांग अर्थात् वैदिक व्याकरण के नियमों से सुलभ होता है।
वेदों की ही पुराण संज्ञा है। वर्तमान में जो पुराण उपलब्ध होते हैं वह महाभारत युद्ध के सहस्रो वर्ष पश्चात लिखे गये। पुराणों की अनेक बातें अविश्वसनीय एवं वेद विरुद्ध सहित परस्पर विरोधी भी हैं।
शिव-पुराण भगवान शिव की प्रशंसा करता है तो दूसरी विष्णु-पुराण आदि पुराणों में शिव के लिये विरोधी स्वर हैं और अपने इष्ट विष्णु की प्रशंसा है।
ऐसा आर्य विद्वानों का मत है जिन्होंने पुराणों का गहन अध्ययन किया था। पुराणों की वास्तविकता का ज्ञान आर्य विद्वान पं0 मनसाराम वैदिक तोप जी की पुस्तकों ‘’पौराणिक पोल प्रकाश” एवं ‘‘पौराणिक पोप पर वैदिक तोप” से भी सहज ही होता है।
इन ग्रन्थों में पुराणों की अवैदिक मान्यताओं का दिग्दर्शन कराने सहित उनकी सत्यता की परीक्षा भी की गई है।
हमारा वर्तमान पौराणिक सनातनी मत ईश्वर-प्रदत्त वेदमत का विकृत रूप है जिसमें अनेक अन्धविश्वास, वेदविरुद्ध अप्रामाणिक कथन एवं अविश्वसनीय इतिहास एवं कथन विद्यमान हैं।
वेदों में कहीं पर भी मूर्तिपूजा का विधान नहीं है। यदि वेदों में विधान होता तो 16 नवम्बर, 1869 ई0 को काशी में ऋषि दयानन्द से 30 सनातनी विद्वानों के शास्त्रार्थ में सनातन विद्वन ऋषि दयानन्द को दिखा देते और यह समस्या का हमेशा के लिए निदान हो जाता।
फलित ज्योतिष का विधान भी वेदों में कहीं नहीं है। फलित ज्योतिष का विधान वेदानुकूल भी नहीं है। इसी प्रकार से ईश्वर के अवतार लेने की मान्यता भी वेद प्रतिपादित न होकर हमारे कुछ मध्यकालीन पुराणकारों व वेद विरोधियों की दी हुई प्रतीत होती है
जो कि तर्क एवं युक्तियों से भी बुद्धिसंगत सिद्ध नहीं होती। ऋषि दयानन्द ने अपने अमर ग्रन्थ में पुराण की वेदविरुद्ध मान्यताओं का युक्ति एवं तर्क के साथ खण्डन किया है। इससे हम सत्यासत्य का निर्णय कर सकते हैं।
वर्तमान में हमारा धर्म हमारे मन्दिरों के पुजारियों सहित यज्ञ एवं संस्कार कराने वाले पुरोहितों पर निर्भर प्रतीत होता है।
इन पुजारी एवं पुरोहितों से धर्मभीरू जनता की अपेक्षा होती है कि यह उन्हें ईश्वर, जीवात्मा, सृष्टि की उत्पत्ति के उपादान कारण प्रकृति का सत्य स्वरूप समझायें जिससे लोग ईश्वर व आत्मा को जान सकें।
ईश्वर की उपासना व भक्ति का उद्देश्य भी वेद प्रमाणों एवं युक्तियों से समझाया जाना चाहिये। मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य क्या है, यह भी सभी धर्म में विश्वास रखने वाले श्रद्धालुओं को ज्ञात होना चाहिये।
उपासना की एक ही विधि हो सकती है या इसकी अनेक विधियां हो सकती हैं? विधि की सत्यता को जांचने की कसौटियां क्या-क्या हैं? वर्तमान में उपासना व मूर्तिपूजा की जो विधियां हमारे मन्दिरों में प्रयोग में लायी जाती हैं, उसका आधार और प्रमाण क्या है?
क्या प्रचलित विधियों से भक्ति, उपासना या पूजा करने से आज तक किसी भक्त, पुजारी व धर्मप्रेमी को ईश्वर के दर्शन, साक्षात्कार, साक्षात-अनुभव व प्राप्ति हुई है।
क्या किसी पूजा करने वाले का कोई ऐसा कार्य सम्पन्न हुआ है जो पूजा न करने वालों का नहीं होता है? इसका यदि कहीं एक भी प्रमाण है तो वह दिया जाना चाहिये।
यदि मूर्ति पूजा से हमारी कामनायें व इच्छायें पूर्ण हो सकती हैं तो वही मूर्ति रूपी भगवान अपनी भोजन, वस्त्र एवं स्वच्छता आदि की आवश्यकतायें स्वयं पूरी क्यों नहीं कर लेते। क्यों वह मन्दिरों के पुजारियों पर निर्भर रहते हैं।
ऐसे ही कुछ प्रश्न बालक दयानन्द के मन में भी उत्पन्न हुए थे जिस कारण उन्होंने घर-परिवार छोड़ सत्यधर्म की खोज की थी और उसी का परिणाम उनका वैदिक धर्म का प्रचार, सत्यार्थप्रकाश, वेदभाष्य आदि ग्रन्थ एवं समाज सुधार विषयक अन्य कार्य हैं।
वेदों में ईश्वर को सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान कहा गया है। क्या मन्दिर की मूर्ति में भी सर्वशक्तिमान होने का गुण होता है? यदि नहीं है तो फिर वह ईश्वर कैसे है?
यदि है तो फिर हमारे सोमनाथ मन्दिर, मथुरा के द्वारकाधीश व कृष्ण जन्म भूमि के मन्दिर, काशी विश्वनाथ तथा अयोध्या में राम जन्मभूमि मन्दिरों आदि सहस्रों मन्दिरों का तुच्छ विधर्मियों ने ध्वंस क्योंकर कर दिया।
ईश्वरीय शक्ति से सम्पन्न मूर्तियां अपनी व अपने भक्तों की रक्षा क्यों नहीं कर सकीं थी? जब नहीं कर सकीं तो आज भी कैसे कर सकती हैं?
यदि मूर्तिपूजा करने व उस पर चढ़ावा चढ़ाने से भक्तों की इच्छायें व कामनायें पूरी होती हैं तो मूर्तिपूजा न करने व उनका ध्वंस करने वाली जातियों के लोगों की इच्छायें व कामनायें कौन सा ईश्वर व भगवान पूरी करता है?
हम समझते हैं कि हमारे मन्दिरों के पुजारियों व पुरोहितों को इन सब बातों पर वेदों के प्रकाश में अवश्य विचार करना चाहिये। उन्हें असत्य का त्याग और सत्य का ग्रहण करना चाहिये।
वेदों के अनुसार सत्य का ग्रहण ही धर्म और असत्य का त्याग ही अधर्म है। हमने क्योंकि वेदों की शिक्षाओं को छोड़कर तुच्छ ग्रन्थों को अपना आधार बनाया, इसी कारण महान आर्य हिन्दू जाति का पतन हुआ।
इतिहास एवं वेदज्ञान से शिक्षा लेकर यदि सभी हिन्दू एवं आर्यसमाजी वर्तमान में भी यदि जातिवाद और अन्धविश्वासों को छोड़कर संगठित हो जायें, एक भाव, एक सुख व दुःख, एक मन, एक विचार वाले हो जायें, जैसा कि ऋग्वेद के संगठन सूक्त में कहा भी गया है,
तो आज भी हम महाभारत व उससे पूर्व की शक्ति से सम्पन्न होकर अपने सभी दुष्ट प्रवृत्ति रखने वाले विरोधी व शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।
ऐसा होना तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि हम अविद्या व अज्ञान के कार्यों को छोड़कर अविवादित वैदिक धार्मिक विचारधारा को न अपनायें और हममें धर्म के नाम पर किसी प्रकार का भेदभाव हमारे किसी व्यक्ति में न हो।
जो भी मनुष्य ईश्वर, वेद और ऋषियों सहित राम, कृष्ण आदि की परम्पराओं को मानता है, वह हमारा अपना बन्धु-बान्धव एवं सगा-सम्बन्धी है।
उसे हमें अपने कुटुम्ब का ही एक सदस्य मानना चाहिये। किसी से भी किसी प्रकार छुआछूत एवं भेदभाव नहीं होना चाहिये।
हमारे धार्मिक विचारों के समान विचारों वाला व्यक्ति यदि कभी किसी भी प्रकार के शारीरिक व अन्य संकट एवं कष्ट में आता हैं तो हमारे सबके हाथ उस बन्धु और उसके परिवार की सहायता के लिये आगे बढ़ने चाहिये। यह भावनायें हमें वेद पढ़कर विकसित होती हैं।
हमारे सभी पुजारियों तथा पुरोहितों को समान रूप से वेदों का अध्ययन करना चाहिये। उनको वेदांग मुख्यतः संस्कृत व्याकरण की अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति का ज्ञान होना चाहिये।
यदि यह लोग वेदों का अध्ययन नहीं कर सकते तो ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदभाष्य सहित संस्कारविधि, आर्याभिविनय एवं आर्यविद्वानों के वेदानुकूल वा वेदसम्मत ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये।
इस अध्ययन को करने के बाद हमारे धर्मबन्धुओं को समाज में घर-घर जा कर वैदिक धार्मिक मान्यताओं का प्रचार करना चाहिये।
हमारे पुजारियों एवं पुरोहितों को भक्तों की अपने मन्दिरों व यज्ञशालाओं में प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिये अपितु अपने आसपास के एक-एक घर में जाकर ईश्वर व वेद का सत्य सन्देश देना चाहिये।
मन्दिर में बैठकर भक्तों से चढ़ावा प्राप्त करना मात्र धर्म नहीं है अपितु यह आज के युग में पुरुषार्थहीनता की निशानी है। यह वेद विरुद्ध कार्य है।
इसी कारण हमारा धर्म एवं समाज कमजोर होता जा रहा है। यदि हमारे सभी पुजारी व वैदिक पुरोहित भी बिना लोगों के बुलायें और बिना दक्षिणा के प्रलोभन के सनातन वैदिक धर्म को मानने वाले बन्धुओं के घर-घर जा कर वैदिक धार्मिक मान्यताओं का लोभ रहित होकर प्रचार करेंगे,
तभी धर्म की रक्षा हो सकती है। हम यदा-कदा देखते रहते हैं कि वैदिक धर्म की आस्थाओं पर कुछ लोग कुठाराघात करते हैं और वोट बैंक की नीति व व्यवस्था के दोषों के कारण हमें न्याय प्राप्त नहीं होता।
हमारे मन्दिर अपमानित किये जाते हैं, हमें पीटा जाता है और हमारे देश के लोग हमें ही संयम रखने को कहते हैं। जो हिंसा फैलाते हैं व ऐसी प्रवृत्ति के हैं, उनके विरुद्ध कुछ कहने का साहस हमारे बुद्धिजीवियों व नेताओं को नहीं होता।
अतः हमें अपनी रक्षा स्वयं करनी है। यह तभी सम्भव है कि जब हम अपने सभी अन्धविश्वासों व सामाजिक बुराईयों को सर्वथा छोड़ दें। ऋषि दयानन्द ने हमें यही मार्ग बताया था।
यह दुःख की बात है कि हमने अपने धार्मिक एवं सामाजिक महारोग की यथार्थ व हितकारी ओषधि का सेवन नहीं किया अपितु अपनी मलिन बुद्धि के कारण उस महौषधि का त्याग ही किया है।
आज भी हमारे पास अवसर है कि हम अपनी सभी बुराईयों, कमजोरियों, लोभ व महत्वाकांक्षाओं को भुलाकर आपस में इस प्रकार से संगठित हों जिस प्रकार से अनेक नदियों का जल मिलाने पर एकरस व एकरूप होता है।
विभिन्न नदियों के मिले हुए जल को किसी भी वैज्ञानिक व अन्य विधि से अलग-अलग नहीं किया जा सकता। ऐसा ही हम सब वैदिक, सनातन, पौराणिक बन्धुओं को होना चाहिये।
हम भी आपस में नदियों के जल के समान अपने हृदयों व मन को ऐसा मिलाये कि हम अनेक शरीर एक आत्मा के समान हो जायें और सभी विधर्मियों व विरोधियों को एक व संगठित दृष्टिगोचर हों। किसी में हमें छेड़ने व हानि पहुचानें का साहस न हो।
हम आर्य पुरोहितों के विषय में भी यही सोचते हैं कि उनका कार्यक्षेत्र असीमित है। वह अपने आप को समाज मन्दिर व यजमानों के घरों पर यज्ञ एवं संस्कार कराने तक ही सीमित न रखें
अपितु स्वधर्मियों का प्रत्येक घर एवं उसके प्रत्येक व्यक्ति में वैदिक धर्म का प्रकाश करना हमारा उद्देश्य एवं लक्ष्य होना चाहिये।
यज्ञ करवाने वाले व्यक्तियों के प्रति वह ऐसा व्यवहार करें कि जिससे किसी यजमान को उनके कार्य एवं व्यवहार से कोई शिकायत न हो। लोभी स्वभाव का परिचय तो कदापि न मिले।
निर्धन से निर्धन व्यक्ति भी अपने घरों पर पुरोहितों को आमंत्रित करयज्ञ एवं संस्कार करा सके। यदि हम पुरुषार्थ करेंगे तो जीवन जीने के साधन तो भगवान से प्राप्त होंगे ही।
लोगों के घर-घर जाकर बिना लोभ के प्रचार करने से लोगों में जागृति आ सकती है। गुपचुप रीति से जो धर्मान्तरण नाना रूपों में गुप्त योजनाबद्ध होकर किया जा रहा है, वह भी थमेगा।
आज स्थिति यह है कि निर्धन तो क्या धनवान व्यक्ति भी यज्ञ एवं संस्कार कराते हुए असहज दीखते हैं। ऐसा हम अपने कुछ परिचितों से वार्तालाप के आधार पर कह रहे हैं।
इसी कारण समाज में लोग यज्ञ आदि नहीं कराते या बहुत मजबूरी में ही कराते हैं। हम कितना कहें कि आप बच्चों के जन्म दिन, विवाह की वर्षगांठ एवं अन्य शुभ अवसरों पर अपने घरों पर यज्ञ एवं संस्कार आदि कराया कीजिये,
परन्तु इसका प्रभाव समाज के एक प्रतिशत लोगों पर भी नहीं होता। हमारी समाजों के अधिकारियों को भी आर्यसमाज का प्रचार मन्दिर की चारदिवारी तक सीमित न रखकर विभिन्न मुहल्लों व सार्वजनिक स्थानों पर आयोजित करना चाहिये।
हमारे विद्वानों को भी अपनी दक्षिणा आदि का त्याग कर ऐसे कार्यों में सहयोग करना चाहिये। आजकल हमारे विद्वान भी बिना पूर्व निर्धारित आमंत्रण के कहीं आते-जाते नहीं है, भले ही वह अपने घरों पर हों और उनके पास अवकाश भी हो।
हमारे सभी बन्धुओं को हिन्दू व आर्यों की जनसंख्या में निरन्तर हो रही कमी पर भी विचार करना चाहिये और इस पर उचित निर्णय लेकर उसका भी जन-जन में प्रचार करना चाहिये।
एक समय हाथ से निकल जाने पर कितनी भी कीमत देकर वापिस लौटाया नहीं जा सकता। इस पर विचार करने सहित ध्यान देना चाहिये।
देश व समाज के हित में हमने अपनी सामान्य व साधारण भाषा में सन्देश देने का प्रयास किया है जिसे हमारी आत्मा ने उचित समझा है।
यदि किसी को बुरा लगे तो हम क्षमा प्रार्थी हैं। हिन्दू व आर्य जाति की रक्षा व हित के लिये यह पंक्तियां लिखी गईं हैं। इसमें व्यक्त पीड़ा को समझने की कृपा करें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
“हमारे पुरोहितों, पुजारियों एवं विद्वानों का कर्तव्य सब मनुष्यों को ईश्वर का सत्यस्वरूप बताकर उन्हें उपासना सिखाना एवं संगठित करना भी है?”
====================वैदिक धर्म ही सनातन धर्म है क्योंकि यह हर युग एवं कल्पकल्पान्तर के मनुष्यों का सद्धर्म रहा है व वर्तमान में भी है। वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जो अमैथुनी सृष्टि में चार ऋषियों की आत्मा में ईश्वर द्वारा अन्तःप्रेरणा के द्वारा दिया गया था।
वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद की कोई भी बात असत्य, अप्रमाणिक तथा सृष्टिक्रम के विरुद्ध नहीं है। वेद विद्या के ग्रन्थ हैं और अविद्या व अज्ञान आदि से सर्वथा मुक्त है।
वेद में इतिहास भी किंचित नहीं है। वेद के सभी शब्द व पद धातुज व यौगिक हैं जिनकी उत्पत्ति व अर्थ वेदांग अर्थात् वैदिक व्याकरण के नियमों से सुलभ होता है।
वेदों की ही पुराण संज्ञा है। वर्तमान में जो पुराण उपलब्ध होते हैं वह महाभारत युद्ध के सहस्रो वर्ष पश्चात लिखे गये। पुराणों की अनेक बातें अविश्वसनीय एवं वेद विरुद्ध सहित परस्पर विरोधी भी हैं।
शिव-पुराण भगवान शिव की प्रशंसा करता है तो दूसरी विष्णु-पुराण आदि पुराणों में शिव के लिये विरोधी स्वर हैं और अपने इष्ट विष्णु की प्रशंसा है।
ऐसा आर्य विद्वानों का मत है जिन्होंने पुराणों का गहन अध्ययन किया था। पुराणों की वास्तविकता का ज्ञान आर्य विद्वान पं0 मनसाराम वैदिक तोप जी की पुस्तकों ‘’पौराणिक पोल प्रकाश” एवं ‘‘पौराणिक पोप पर वैदिक तोप” से भी सहज ही होता है।
इन ग्रन्थों में पुराणों की अवैदिक मान्यताओं का दिग्दर्शन कराने सहित उनकी सत्यता की परीक्षा भी की गई है।
हमारा वर्तमान पौराणिक सनातनी मत ईश्वर-प्रदत्त वेदमत का विकृत रूप है जिसमें अनेक अन्धविश्वास, वेदविरुद्ध अप्रामाणिक कथन एवं अविश्वसनीय इतिहास एवं कथन विद्यमान हैं।
वेदों में कहीं पर भी मूर्तिपूजा का विधान नहीं है। यदि वेदों में विधान होता तो 16 नवम्बर, 1869 ई0 को काशी में ऋषि दयानन्द से 30 सनातनी विद्वानों के शास्त्रार्थ में सनातन विद्वन ऋषि दयानन्द को दिखा देते और यह समस्या का हमेशा के लिए निदान हो जाता।
फलित ज्योतिष का विधान भी वेदों में कहीं नहीं है। फलित ज्योतिष का विधान वेदानुकूल भी नहीं है। इसी प्रकार से ईश्वर के अवतार लेने की मान्यता भी वेद प्रतिपादित न होकर हमारे कुछ मध्यकालीन पुराणकारों व वेद विरोधियों की दी हुई प्रतीत होती है
जो कि तर्क एवं युक्तियों से भी बुद्धिसंगत सिद्ध नहीं होती। ऋषि दयानन्द ने अपने अमर ग्रन्थ में पुराण की वेदविरुद्ध मान्यताओं का युक्ति एवं तर्क के साथ खण्डन किया है। इससे हम सत्यासत्य का निर्णय कर सकते हैं।
वर्तमान में हमारा धर्म हमारे मन्दिरों के पुजारियों सहित यज्ञ एवं संस्कार कराने वाले पुरोहितों पर निर्भर प्रतीत होता है।
इन पुजारी एवं पुरोहितों से धर्मभीरू जनता की अपेक्षा होती है कि यह उन्हें ईश्वर, जीवात्मा, सृष्टि की उत्पत्ति के उपादान कारण प्रकृति का सत्य स्वरूप समझायें जिससे लोग ईश्वर व आत्मा को जान सकें।
ईश्वर की उपासना व भक्ति का उद्देश्य भी वेद प्रमाणों एवं युक्तियों से समझाया जाना चाहिये। मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य क्या है, यह भी सभी धर्म में विश्वास रखने वाले श्रद्धालुओं को ज्ञात होना चाहिये।
उपासना की एक ही विधि हो सकती है या इसकी अनेक विधियां हो सकती हैं? विधि की सत्यता को जांचने की कसौटियां क्या-क्या हैं? वर्तमान में उपासना व मूर्तिपूजा की जो विधियां हमारे मन्दिरों में प्रयोग में लायी जाती हैं, उसका आधार और प्रमाण क्या है?
क्या प्रचलित विधियों से भक्ति, उपासना या पूजा करने से आज तक किसी भक्त, पुजारी व धर्मप्रेमी को ईश्वर के दर्शन, साक्षात्कार, साक्षात-अनुभव व प्राप्ति हुई है।
क्या किसी पूजा करने वाले का कोई ऐसा कार्य सम्पन्न हुआ है जो पूजा न करने वालों का नहीं होता है? इसका यदि कहीं एक भी प्रमाण है तो वह दिया जाना चाहिये।
यदि मूर्ति पूजा से हमारी कामनायें व इच्छायें पूर्ण हो सकती हैं तो वही मूर्ति रूपी भगवान अपनी भोजन, वस्त्र एवं स्वच्छता आदि की आवश्यकतायें स्वयं पूरी क्यों नहीं कर लेते। क्यों वह मन्दिरों के पुजारियों पर निर्भर रहते हैं।
ऐसे ही कुछ प्रश्न बालक दयानन्द के मन में भी उत्पन्न हुए थे जिस कारण उन्होंने घर-परिवार छोड़ सत्यधर्म की खोज की थी और उसी का परिणाम उनका वैदिक धर्म का प्रचार, सत्यार्थप्रकाश, वेदभाष्य आदि ग्रन्थ एवं समाज सुधार विषयक अन्य कार्य हैं।
वेदों में ईश्वर को सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान कहा गया है। क्या मन्दिर की मूर्ति में भी सर्वशक्तिमान होने का गुण होता है? यदि नहीं है तो फिर वह ईश्वर कैसे है?
यदि है तो फिर हमारे सोमनाथ मन्दिर, मथुरा के द्वारकाधीश व कृष्ण जन्म भूमि के मन्दिर, काशी विश्वनाथ तथा अयोध्या में राम जन्मभूमि मन्दिरों आदि सहस्रों मन्दिरों का तुच्छ विधर्मियों ने ध्वंस क्योंकर कर दिया।
ईश्वरीय शक्ति से सम्पन्न मूर्तियां अपनी व अपने भक्तों की रक्षा क्यों नहीं कर सकीं थी? जब नहीं कर सकीं तो आज भी कैसे कर सकती हैं?
यदि मूर्तिपूजा करने व उस पर चढ़ावा चढ़ाने से भक्तों की इच्छायें व कामनायें पूरी होती हैं तो मूर्तिपूजा न करने व उनका ध्वंस करने वाली जातियों के लोगों की इच्छायें व कामनायें कौन सा ईश्वर व भगवान पूरी करता है?
हम समझते हैं कि हमारे मन्दिरों के पुजारियों व पुरोहितों को इन सब बातों पर वेदों के प्रकाश में अवश्य विचार करना चाहिये। उन्हें असत्य का त्याग और सत्य का ग्रहण करना चाहिये।
वेदों के अनुसार सत्य का ग्रहण ही धर्म और असत्य का त्याग ही अधर्म है। हमने क्योंकि वेदों की शिक्षाओं को छोड़कर तुच्छ ग्रन्थों को अपना आधार बनाया, इसी कारण महान आर्य हिन्दू जाति का पतन हुआ।
इतिहास एवं वेदज्ञान से शिक्षा लेकर यदि सभी हिन्दू एवं आर्यसमाजी वर्तमान में भी यदि जातिवाद और अन्धविश्वासों को छोड़कर संगठित हो जायें, एक भाव, एक सुख व दुःख, एक मन, एक विचार वाले हो जायें, जैसा कि ऋग्वेद के संगठन सूक्त में कहा भी गया है,
तो आज भी हम महाभारत व उससे पूर्व की शक्ति से सम्पन्न होकर अपने सभी दुष्ट प्रवृत्ति रखने वाले विरोधी व शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।
ऐसा होना तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि हम अविद्या व अज्ञान के कार्यों को छोड़कर अविवादित वैदिक धार्मिक विचारधारा को न अपनायें और हममें धर्म के नाम पर किसी प्रकार का भेदभाव हमारे किसी व्यक्ति में न हो।
जो भी मनुष्य ईश्वर, वेद और ऋषियों सहित राम, कृष्ण आदि की परम्पराओं को मानता है, वह हमारा अपना बन्धु-बान्धव एवं सगा-सम्बन्धी है।
उसे हमें अपने कुटुम्ब का ही एक सदस्य मानना चाहिये। किसी से भी किसी प्रकार छुआछूत एवं भेदभाव नहीं होना चाहिये।
हमारे धार्मिक विचारों के समान विचारों वाला व्यक्ति यदि कभी किसी भी प्रकार के शारीरिक व अन्य संकट एवं कष्ट में आता हैं तो हमारे सबके हाथ उस बन्धु और उसके परिवार की सहायता के लिये आगे बढ़ने चाहिये। यह भावनायें हमें वेद पढ़कर विकसित होती हैं।
हमारे सभी पुजारियों तथा पुरोहितों को समान रूप से वेदों का अध्ययन करना चाहिये। उनको वेदांग मुख्यतः संस्कृत व्याकरण की अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति का ज्ञान होना चाहिये।
यदि यह लोग वेदों का अध्ययन नहीं कर सकते तो ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदभाष्य सहित संस्कारविधि, आर्याभिविनय एवं आर्यविद्वानों के वेदानुकूल वा वेदसम्मत ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये।
इस अध्ययन को करने के बाद हमारे धर्मबन्धुओं को समाज में घर-घर जा कर वैदिक धार्मिक मान्यताओं का प्रचार करना चाहिये।
हमारे पुजारियों एवं पुरोहितों को भक्तों की अपने मन्दिरों व यज्ञशालाओं में प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिये अपितु अपने आसपास के एक-एक घर में जाकर ईश्वर व वेद का सत्य सन्देश देना चाहिये।
मन्दिर में बैठकर भक्तों से चढ़ावा प्राप्त करना मात्र धर्म नहीं है अपितु यह आज के युग में पुरुषार्थहीनता की निशानी है। यह वेद विरुद्ध कार्य है।
इसी कारण हमारा धर्म एवं समाज कमजोर होता जा रहा है। यदि हमारे सभी पुजारी व वैदिक पुरोहित भी बिना लोगों के बुलायें और बिना दक्षिणा के प्रलोभन के सनातन वैदिक धर्म को मानने वाले बन्धुओं के घर-घर जा कर वैदिक धार्मिक मान्यताओं का लोभ रहित होकर प्रचार करेंगे,
तभी धर्म की रक्षा हो सकती है। हम यदा-कदा देखते रहते हैं कि वैदिक धर्म की आस्थाओं पर कुछ लोग कुठाराघात करते हैं और वोट बैंक की नीति व व्यवस्था के दोषों के कारण हमें न्याय प्राप्त नहीं होता।
हमारे मन्दिर अपमानित किये जाते हैं, हमें पीटा जाता है और हमारे देश के लोग हमें ही संयम रखने को कहते हैं। जो हिंसा फैलाते हैं व ऐसी प्रवृत्ति के हैं, उनके विरुद्ध कुछ कहने का साहस हमारे बुद्धिजीवियों व नेताओं को नहीं होता।
अतः हमें अपनी रक्षा स्वयं करनी है। यह तभी सम्भव है कि जब हम अपने सभी अन्धविश्वासों व सामाजिक बुराईयों को सर्वथा छोड़ दें। ऋषि दयानन्द ने हमें यही मार्ग बताया था।
यह दुःख की बात है कि हमने अपने धार्मिक एवं सामाजिक महारोग की यथार्थ व हितकारी ओषधि का सेवन नहीं किया अपितु अपनी मलिन बुद्धि के कारण उस महौषधि का त्याग ही किया है।
आज भी हमारे पास अवसर है कि हम अपनी सभी बुराईयों, कमजोरियों, लोभ व महत्वाकांक्षाओं को भुलाकर आपस में इस प्रकार से संगठित हों जिस प्रकार से अनेक नदियों का जल मिलाने पर एकरस व एकरूप होता है।
विभिन्न नदियों के मिले हुए जल को किसी भी वैज्ञानिक व अन्य विधि से अलग-अलग नहीं किया जा सकता। ऐसा ही हम सब वैदिक, सनातन, पौराणिक बन्धुओं को होना चाहिये।
हम भी आपस में नदियों के जल के समान अपने हृदयों व मन को ऐसा मिलाये कि हम अनेक शरीर एक आत्मा के समान हो जायें और सभी विधर्मियों व विरोधियों को एक व संगठित दृष्टिगोचर हों। किसी में हमें छेड़ने व हानि पहुचानें का साहस न हो।
हम आर्य पुरोहितों के विषय में भी यही सोचते हैं कि उनका कार्यक्षेत्र असीमित है। वह अपने आप को समाज मन्दिर व यजमानों के घरों पर यज्ञ एवं संस्कार कराने तक ही सीमित न रखें
अपितु स्वधर्मियों का प्रत्येक घर एवं उसके प्रत्येक व्यक्ति में वैदिक धर्म का प्रकाश करना हमारा उद्देश्य एवं लक्ष्य होना चाहिये।
यज्ञ करवाने वाले व्यक्तियों के प्रति वह ऐसा व्यवहार करें कि जिससे किसी यजमान को उनके कार्य एवं व्यवहार से कोई शिकायत न हो। लोभी स्वभाव का परिचय तो कदापि न मिले।
निर्धन से निर्धन व्यक्ति भी अपने घरों पर पुरोहितों को आमंत्रित करयज्ञ एवं संस्कार करा सके। यदि हम पुरुषार्थ करेंगे तो जीवन जीने के साधन तो भगवान से प्राप्त होंगे ही।
लोगों के घर-घर जाकर बिना लोभ के प्रचार करने से लोगों में जागृति आ सकती है। गुपचुप रीति से जो धर्मान्तरण नाना रूपों में गुप्त योजनाबद्ध होकर किया जा रहा है, वह भी थमेगा।
आज स्थिति यह है कि निर्धन तो क्या धनवान व्यक्ति भी यज्ञ एवं संस्कार कराते हुए असहज दीखते हैं। ऐसा हम अपने कुछ परिचितों से वार्तालाप के आधार पर कह रहे हैं।
इसी कारण समाज में लोग यज्ञ आदि नहीं कराते या बहुत मजबूरी में ही कराते हैं। हम कितना कहें कि आप बच्चों के जन्म दिन, विवाह की वर्षगांठ एवं अन्य शुभ अवसरों पर अपने घरों पर यज्ञ एवं संस्कार आदि कराया कीजिये,
परन्तु इसका प्रभाव समाज के एक प्रतिशत लोगों पर भी नहीं होता। हमारी समाजों के अधिकारियों को भी आर्यसमाज का प्रचार मन्दिर की चारदिवारी तक सीमित न रखकर विभिन्न मुहल्लों व सार्वजनिक स्थानों पर आयोजित करना चाहिये।
हमारे विद्वानों को भी अपनी दक्षिणा आदि का त्याग कर ऐसे कार्यों में सहयोग करना चाहिये। आजकल हमारे विद्वान भी बिना पूर्व निर्धारित आमंत्रण के कहीं आते-जाते नहीं है, भले ही वह अपने घरों पर हों और उनके पास अवकाश भी हो।
हमारे सभी बन्धुओं को हिन्दू व आर्यों की जनसंख्या में निरन्तर हो रही कमी पर भी विचार करना चाहिये और इस पर उचित निर्णय लेकर उसका भी जन-जन में प्रचार करना चाहिये।
एक समय हाथ से निकल जाने पर कितनी भी कीमत देकर वापिस लौटाया नहीं जा सकता। इस पर विचार करने सहित ध्यान देना चाहिये।
देश व समाज के हित में हमने अपनी सामान्य व साधारण भाषा में सन्देश देने का प्रयास किया है जिसे हमारी आत्मा ने उचित समझा है।
यदि किसी को बुरा लगे तो हम क्षमा प्रार्थी हैं। हिन्दू व आर्य जाति की रक्षा व हित के लिये यह पंक्तियां लिखी गईं हैं। इसमें व्यक्त पीड़ा को समझने की कृपा करें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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