ओ३म्
आर्यसमाज वेद प्रचार का आन्दोलन है जिसकी स्थापना वेदों के महान ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने 10 अप्रैल सन् 1875 को मुम्बई में की थी।
वर्तमान समय में आर्यसमाज भारत सहित विश्व के अनेक देशों में भी फैला हुआ हैं। प्रचार की दृष्टि से देखें तो आर्यसमाज में ठहराव व शिथिलता प्रतीत होती है।
आर्यसमाजों से किसी आर्य सदस्य की जो अपेक्षायें होती हैं वह भी समाजों में जाने पर पूरी नहीं होती।
यदि कभी किसी सक्रिय सदस्य को बाहर जाना पड़े और वह वहां निकटवर्ती अथवा किसी प्रमुख आर्यसमाज में जाये तो वहां सेवक या पुरोहित में से किसी एक के ही दर्शन हो पाते हैं।
मंत्री व प्रधान जी रविवार को कुछ देर के लिए ही समाज मन्दिरों में आते हैं। रविवार के सत्संगों में उपस्थिति निरन्तर कम होती जा रही है।
अग्निहोत्र के समय उपस्थिति बहुत कम होती है। मंत्री एवं प्रधान जी प्रायः यज्ञ के बाद समाज मन्दिर में पहुंचते हैं। इसी कारण से बहुत से आर्यसमाजों में दैनिक अग्निहोत्र व सत्संग न होकर रविवार को ही अग्निहोत्र किया जाता है।
समाजों में जाने पर अपवादों को छोड़कर वहां उपस्थिति सेवक व पुरोहित जी में शायद ही वह आगन्तुक व्यक्ति से खुलकर बात करते हों।
हमने ऐसा भी अनुभव किया है अधिकारी व कर्मचारीगण प्रायः नहीं चाहते कि बाहर से कोई व्यक्ति उनके आर्यसमाज का अतिथि बने।
इस दृष्टि से हम सिखों एवं अन्य धार्मिक संस्थाओं की तुलना में बहुत पिछड़े हुए हैं। आर्यसमाजों में आगन्तुक अतिथि के भोजन आदि की समुचित व्यवस्था भी देखने को नहीं मिलती।
उसे बाहर किसी होटल में जाकर ही जलपान व भोजन लेना होता है। हमने यह भी अनुभव किया है कि आर्यसमाज के कर्मचारीगणों को इससे कोई मतलब नहीं होता कि अतिथि किसी कोटि का ऋषिभक्त एवं वैदिक धर्म व संस्कृति का अनुरागी है।
ऐसी स्थिति में निराशा ही हाथ लगती है। हमारे जो पुरोहितगण आर्य परिवार अन्यों में में यज्ञ एवं संस्कार आदि कराते हैं, उनसे व्यवहार से भी यज्ञ करवाने लोग सन्तुष्ट नहीं देखे जाते।
हमने यह भी असमर्थता अनुभव की है कि हमसे जिस प्रकार के पुरोहितों के व्यवहार की कुछ लोग अपेक्षा करते हैं, वैसा व्यक्ति हम उन्हें उपलब्ध नहीं करा पाते।
आज का युग आर्थिक युग है और हमारे सभी लोग अर्थ प्राप्ति को ही महत्व देते हुए देखे जाते हैं। आर्यसमाज की विचारधारा आर्यसमाज से अपरिचितों लोगों में नहीं पहुंच पा रही है।
हमारे पास न जनून खने वाले अवैतनिक प्रचारक हैं न वैतनिक। हमारे विद्वान व भजनोपदेशक प्रायः आर्यसमाज के उत्सवों या कथाओं में ही जा पाते हैं और आर्यसमाज की चार-दिवारी में ही भजन व उपदेश देते हैं।
ऐसे स्थिति में आर्यसमाज के सदस्यों की वृद्धि कैसे हो? यह यक्ष प्रश्न हमारे सामने है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो हम अनुभव करते हैं कि हमारे आर्यसमाजों को और आर्य संस्थाओं को योग्य मंत्री व प्रधान सहित सभासद् मिलना कठिन हो जायेंगे।
हम यह बात देहरादून की संस्थाओं को देखकर कह रहे हैं। हम यह भी अनुभव करते हैं कि आर्यसमाज के पास सम्पत्तियां तो बहुत हैं परन्तु उनका सदुपयोग हम लोग नहीं कर पा रहे।
हमारे पास कार्यकर्ताओं का भी अभाव व कमी है जिससे हमारे कई कार्यक्रमों की सफलता में कमियां व त्रुटियां देखी जाती है।
अतः समय-समय पर आर्यसमाज को जीवन्त करने व उसे गति प्रदान करने के उपायों पर हमें मिलकर विचार करना चाहिये।
हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि आर्यसमाज ईश्वर द्वारा प्रचलित वैदिक धर्म एवं संस्कृति का उत्तराधिकारी एवं रक्षक है।
हमें इस धर्म व संस्कृति को न केवल स्वयं अपनाना है एवं इसे अपने जीवन में ढालना है अपितु देश व विश्व के सभी लोगों में प्रचार के द्वारा मनवाना भी है।
हमें यह सिद्ध करना है कि वेदों द्वारा प्रचारित धर्म ही यथार्थ एवं सद्धर्म है। कोई मत-मतानतर अपनी अविद्या को दूर किये बिना अपने अनुयायियों का भला नहीं कर सकता।
वेद विरुद्ध मान्यताओं के होते हुए कोई मत, सम्प्रदाय अथवा संस्था मनुष्य समाज एवं अन्य प्राणियों के लिए लाभकारी नही हो सकती।
वर्तमान में केवल वैदिक धर्म ही ऐसा एकमात्र धर्म है जहां मनुष्य जीवन को आदर्श रूप से जीने सहित मृत्यु के बाद भी श्रेष्ठ मानव जन्म प्राप्त कर मोक्षगामी होने वा मोक्ष को प्राप्त करने की जीवनशैली उपलब्ध है।
अन्य मतों में ऐसा कुछ भी नहीं है। वहां जो भी कहा गया है उसका प्रमाण उपलब्ध नहीं मिलता। वह बातें मात्र लोगों को लुभाने व अपने मत में लाने के लिये ही कही गई प्रतीत होती हैं।
इन मतों के आचार्य अपनी बातों को तर्क व युक्तियों से सिद्ध नहीं करते। यदि उनकी मान्यतायें सत्य होती तो वह अवश्य तर्क से सिद्ध करते। केवल वैदिक मत व धर्म ही ऐसा है जो किसी भी बात को तर्क की तराजू पर तोल कर व आप्त प्रमाणों के आधार पर ही स्वीकार करता है।
अतः सत्य पर आधारित वैदिक धर्म व संस्कृति की आवश्यकता मनुष्य मात्र को है। इसकी रक्षा हम अकेले असंगठित प्रचार द्वारा नहीं कर सकते।
इसके लिये आर्यसमाज को संगठित होना होगा और आर्यसमाज को इसके नाम के अनुरूप श्रेष्ठ लोगों का संगठन बनाना होगा जो कि वर्तमान में सुधार व परिष्कार की अपेक्षा रखता है।
आर्यसमाज का प्रचार करने के लिये हमें आर्यसमाज से परिचित लोगों के घरों में जाकर उन्हें वैदिक धर्म एवं आर्यसमाज की विचारधारा एवं सिद्धान्तों का परिचय देना होगा।
उन्हें ईश्वर, जीवात्मा तथा संसार के स्वरूप का को बताना होगा। कर्म-फल सिद्धान्त पर भी कुछ शब्दों में प्रकाश डालना होगा।
वेदों की प्राचीनता एवं इसके ईश्वर प्रदत्त होने तथा सब सत्य विद्याओं से युक्त होने पर भी तर्कसंगत प्रकाश डालना होगा। वेदों से पुष्ट शाकाहार का महत्व एवं मांसाहार व तामसिक पदार्थों के सेवन से स्वास्थ्य को होने वाली हानियों से भी परिचित कराना होगा।
ईश्वर की उपासना का प्रयोजन व उसकी विधि पर भी प्रकाश डालना होगा। सत्संगति के महत्व को बताना होगा एवं सभी अन्धविश्वासों तथा अनुचित सामाजिक परम्पराओं को भी उजागर करना होगा।
सन्ध्या व अग्निहोत्र के लाभ व उसकी विधि भी बतानी होगी और इसे करने के लिये उन्हें प्रेरित करना होगा। वैदिक धर्म को मानने से अभ्युदय एवं निःश्रेयस की प्राप्ति होती है, इसे तर्क पूर्वक समझाना होगा।
इस प्रकार से घर-घर व परिवार-परिवार में जाकर प्रचार करने से कुछ न कुछ अवश्य लाभ हो सकता है। हमने जो बातें कहीं है,
इन बातों को प्रस्तुत करने वाली एक लघु पुस्तिका भी इन लोगों को देनी होगी जिससे उसे पढ़कर इनकी सन्तुष्टि हो और यह आर्यसमाज के महत्व को जान जायें। इन व्यक्तियों को रविवार को परिवार सहित आर्यसमाज के सत्संगों में आने का निवेदन भी करना होगा।
हमें आर्यसमाज के सत्संगों में उत्तम कोटि के भजन एवं उपदेशों की व्यवस्था करनी होगी। विद्वानों को ऐसे प्रवचन करने चाहिये जो नये सदस्यों सहित पुराने लोगों के लिये भी उपयोगी एवं आकार्षण का केन्द्र हों।
आर्यसमाज में मंत्री, प्रधान तथा उपदेशक मिशनरी भावना रखने वाले तथा ऐसी योग्यता वाले होने चाहियें जो सदस्यों की सभी शंकाओं का समाधान करने में दक्ष हों।
प्रत्येक रविवारीय सत्संग में शंका समाधान किया जाना चाहिये। आर्यसमाज के सभी सदस्यों को भी मंच पर अपने विचार व्यक्त करने का अवसर मिलना चाहिये।
इसके लिये प्रति सप्ताह एक या दो सदस्यों को 5 से 10 मिनट का समय दिया जा सकता है। आर्यसमाज में व्यवस्था में परिवर्तन व सुधार भी किया जाना चाहिये।
सत्संग में आये सभी अपरिचितजनों से मंत्रीजी या प्रधानजी को मिलना चाहिये और उनका परिचय लेकर उनसे प्रत्येक सत्संग में आने का निवेदन करना चाहिये।
यदि वह धर्म व संस्कृति विषय पर उपदेश कर सकते हैं तो उन्हें लगभग 10 मिनट का समय दिया जा सकता है।
सत्संग में आये हुए नये व्यक्तियों का मंत्रीजी को स्वागत करना चाहिये और उनका परिचय प्राप्त कर सभी सदस्यों को उससे अवगत कराना चाहिये।
समाज के प्रधान जी द्वारा सबको नियमित स्वाध्याय करने की प्रेरणा की जानी चाहिये। आर्यसमाज के सत्संगों में अधिकारियों को परिवार सहित आने का प्रयास करना चाहिये।
निर्वाचन में योग्य व्यक्ति जो समाज के कार्यों के लिए पर्याप्त समय दे सकते हैं, उन्हें ही अधिकारी नियुक्त करना चाहिये। आर्यसमाज में गुटबाजी नहीं होनी चाहिये।
अधिकारी हर वर्ष बदल दियें जायें तो अच्छा है। इससे दूसरे व्यक्तियों को भी अधिकारी बन कर कार्य करने का अनुभव प्राप्त होगा और भविष्य में योग्य उत्तराधिकारी न मिलने की समस्या उत्पन्न नहीं होगी।
सभी अधिकारियों को एक दूसरे को सहयोग करना चाहिये। आर्यसमाज में जाने का अर्थ वैदिक धर्म व संस्कृति को मजबूत करना व प्रचारित करना है, अधिकारी बनना व गुटबाजी करना नहीं है।
सभी सदस्यों को अपने मन से अधिकार प्राप्ति का मोह त्यागना होगा तभी आर्यसमाज आगे बढ़ सकता है। आर्यसमाज में सच्चिरित्र एवं गुटबाजी से पृथक विद्वानों को आदर मिलना चाहिये।
सब सदस्यों को आर्यसमाज के नियमों व मान्यताओं का अपने जीवन में शत-प्रतिशत आचरण करना चाहिये। ऐसा करके ही हम आर्यसमाज को कुछ आगे ले जा सकते हैं।
हमने आर्यसमाज की उन्नति के विषय कुछ विचार किया और अपनी बातों को आपके सामने प्रस्तुत किया है। आर्यसमाजों को वार्षिकोत्सव से अधिक ध्यान प्रचार पर देना चाहिये।
वर्तमान में आर्यसमाजों की स्थिति बहुत दयानीय है। देश में इतनी घटनायें घटती हैं परन्तु आर्यसमाज की प्रतिक्रिया कभी सुनने को नहीं मिलती।
आर्यसमाज से निष्क्रियता को दूर करना सब सदस्यों एवं अधिकारियों का कर्तव्य है। तीस चालीस वर्ष पूर्व हमने जब आर्यसमाज में निष्क्रियता देखी थी तो हमने लेखन के माध्यम से उसे दूर करने का प्रयास किया था।
स्थानीय सभी समाचार पत्रों में लेख व समाचारों के माध्यम से नियमित रूप से प्रचार करते रहते थे। आज भी हम इस कार्य को जारी रखे हुए हैं।
जो व्यक्ति आर्यसमाज के लिये जितना कार्य कर सकता है उसे अवश्य करना चाहिये। इस लेख की यदि कोई बात उपयोगी लगे तो स्वीकार करें और जो उचित न लगे उसे छोड़ दें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
“बिना संगठित प्रचार किए आर्यसमाज आगे नहीं बढ़ सकता”
============आर्यसमाज वेद प्रचार का आन्दोलन है जिसकी स्थापना वेदों के महान ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने 10 अप्रैल सन् 1875 को मुम्बई में की थी।
वर्तमान समय में आर्यसमाज भारत सहित विश्व के अनेक देशों में भी फैला हुआ हैं। प्रचार की दृष्टि से देखें तो आर्यसमाज में ठहराव व शिथिलता प्रतीत होती है।
आर्यसमाजों से किसी आर्य सदस्य की जो अपेक्षायें होती हैं वह भी समाजों में जाने पर पूरी नहीं होती।
यदि कभी किसी सक्रिय सदस्य को बाहर जाना पड़े और वह वहां निकटवर्ती अथवा किसी प्रमुख आर्यसमाज में जाये तो वहां सेवक या पुरोहित में से किसी एक के ही दर्शन हो पाते हैं।
मंत्री व प्रधान जी रविवार को कुछ देर के लिए ही समाज मन्दिरों में आते हैं। रविवार के सत्संगों में उपस्थिति निरन्तर कम होती जा रही है।
अग्निहोत्र के समय उपस्थिति बहुत कम होती है। मंत्री एवं प्रधान जी प्रायः यज्ञ के बाद समाज मन्दिर में पहुंचते हैं। इसी कारण से बहुत से आर्यसमाजों में दैनिक अग्निहोत्र व सत्संग न होकर रविवार को ही अग्निहोत्र किया जाता है।
समाजों में जाने पर अपवादों को छोड़कर वहां उपस्थिति सेवक व पुरोहित जी में शायद ही वह आगन्तुक व्यक्ति से खुलकर बात करते हों।
हमने ऐसा भी अनुभव किया है अधिकारी व कर्मचारीगण प्रायः नहीं चाहते कि बाहर से कोई व्यक्ति उनके आर्यसमाज का अतिथि बने।
इस दृष्टि से हम सिखों एवं अन्य धार्मिक संस्थाओं की तुलना में बहुत पिछड़े हुए हैं। आर्यसमाजों में आगन्तुक अतिथि के भोजन आदि की समुचित व्यवस्था भी देखने को नहीं मिलती।
उसे बाहर किसी होटल में जाकर ही जलपान व भोजन लेना होता है। हमने यह भी अनुभव किया है कि आर्यसमाज के कर्मचारीगणों को इससे कोई मतलब नहीं होता कि अतिथि किसी कोटि का ऋषिभक्त एवं वैदिक धर्म व संस्कृति का अनुरागी है।
ऐसी स्थिति में निराशा ही हाथ लगती है। हमारे जो पुरोहितगण आर्य परिवार अन्यों में में यज्ञ एवं संस्कार आदि कराते हैं, उनसे व्यवहार से भी यज्ञ करवाने लोग सन्तुष्ट नहीं देखे जाते।
हमने यह भी असमर्थता अनुभव की है कि हमसे जिस प्रकार के पुरोहितों के व्यवहार की कुछ लोग अपेक्षा करते हैं, वैसा व्यक्ति हम उन्हें उपलब्ध नहीं करा पाते।
आज का युग आर्थिक युग है और हमारे सभी लोग अर्थ प्राप्ति को ही महत्व देते हुए देखे जाते हैं। आर्यसमाज की विचारधारा आर्यसमाज से अपरिचितों लोगों में नहीं पहुंच पा रही है।
हमारे पास न जनून खने वाले अवैतनिक प्रचारक हैं न वैतनिक। हमारे विद्वान व भजनोपदेशक प्रायः आर्यसमाज के उत्सवों या कथाओं में ही जा पाते हैं और आर्यसमाज की चार-दिवारी में ही भजन व उपदेश देते हैं।
ऐसे स्थिति में आर्यसमाज के सदस्यों की वृद्धि कैसे हो? यह यक्ष प्रश्न हमारे सामने है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो हम अनुभव करते हैं कि हमारे आर्यसमाजों को और आर्य संस्थाओं को योग्य मंत्री व प्रधान सहित सभासद् मिलना कठिन हो जायेंगे।
हम यह बात देहरादून की संस्थाओं को देखकर कह रहे हैं। हम यह भी अनुभव करते हैं कि आर्यसमाज के पास सम्पत्तियां तो बहुत हैं परन्तु उनका सदुपयोग हम लोग नहीं कर पा रहे।
हमारे पास कार्यकर्ताओं का भी अभाव व कमी है जिससे हमारे कई कार्यक्रमों की सफलता में कमियां व त्रुटियां देखी जाती है।
अतः समय-समय पर आर्यसमाज को जीवन्त करने व उसे गति प्रदान करने के उपायों पर हमें मिलकर विचार करना चाहिये।
हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि आर्यसमाज ईश्वर द्वारा प्रचलित वैदिक धर्म एवं संस्कृति का उत्तराधिकारी एवं रक्षक है।
हमें इस धर्म व संस्कृति को न केवल स्वयं अपनाना है एवं इसे अपने जीवन में ढालना है अपितु देश व विश्व के सभी लोगों में प्रचार के द्वारा मनवाना भी है।
हमें यह सिद्ध करना है कि वेदों द्वारा प्रचारित धर्म ही यथार्थ एवं सद्धर्म है। कोई मत-मतानतर अपनी अविद्या को दूर किये बिना अपने अनुयायियों का भला नहीं कर सकता।
वेद विरुद्ध मान्यताओं के होते हुए कोई मत, सम्प्रदाय अथवा संस्था मनुष्य समाज एवं अन्य प्राणियों के लिए लाभकारी नही हो सकती।
वर्तमान में केवल वैदिक धर्म ही ऐसा एकमात्र धर्म है जहां मनुष्य जीवन को आदर्श रूप से जीने सहित मृत्यु के बाद भी श्रेष्ठ मानव जन्म प्राप्त कर मोक्षगामी होने वा मोक्ष को प्राप्त करने की जीवनशैली उपलब्ध है।
अन्य मतों में ऐसा कुछ भी नहीं है। वहां जो भी कहा गया है उसका प्रमाण उपलब्ध नहीं मिलता। वह बातें मात्र लोगों को लुभाने व अपने मत में लाने के लिये ही कही गई प्रतीत होती हैं।
इन मतों के आचार्य अपनी बातों को तर्क व युक्तियों से सिद्ध नहीं करते। यदि उनकी मान्यतायें सत्य होती तो वह अवश्य तर्क से सिद्ध करते। केवल वैदिक मत व धर्म ही ऐसा है जो किसी भी बात को तर्क की तराजू पर तोल कर व आप्त प्रमाणों के आधार पर ही स्वीकार करता है।
अतः सत्य पर आधारित वैदिक धर्म व संस्कृति की आवश्यकता मनुष्य मात्र को है। इसकी रक्षा हम अकेले असंगठित प्रचार द्वारा नहीं कर सकते।
इसके लिये आर्यसमाज को संगठित होना होगा और आर्यसमाज को इसके नाम के अनुरूप श्रेष्ठ लोगों का संगठन बनाना होगा जो कि वर्तमान में सुधार व परिष्कार की अपेक्षा रखता है।
आर्यसमाज का प्रचार करने के लिये हमें आर्यसमाज से परिचित लोगों के घरों में जाकर उन्हें वैदिक धर्म एवं आर्यसमाज की विचारधारा एवं सिद्धान्तों का परिचय देना होगा।
उन्हें ईश्वर, जीवात्मा तथा संसार के स्वरूप का को बताना होगा। कर्म-फल सिद्धान्त पर भी कुछ शब्दों में प्रकाश डालना होगा।
वेदों की प्राचीनता एवं इसके ईश्वर प्रदत्त होने तथा सब सत्य विद्याओं से युक्त होने पर भी तर्कसंगत प्रकाश डालना होगा। वेदों से पुष्ट शाकाहार का महत्व एवं मांसाहार व तामसिक पदार्थों के सेवन से स्वास्थ्य को होने वाली हानियों से भी परिचित कराना होगा।
ईश्वर की उपासना का प्रयोजन व उसकी विधि पर भी प्रकाश डालना होगा। सत्संगति के महत्व को बताना होगा एवं सभी अन्धविश्वासों तथा अनुचित सामाजिक परम्पराओं को भी उजागर करना होगा।
सन्ध्या व अग्निहोत्र के लाभ व उसकी विधि भी बतानी होगी और इसे करने के लिये उन्हें प्रेरित करना होगा। वैदिक धर्म को मानने से अभ्युदय एवं निःश्रेयस की प्राप्ति होती है, इसे तर्क पूर्वक समझाना होगा।
इस प्रकार से घर-घर व परिवार-परिवार में जाकर प्रचार करने से कुछ न कुछ अवश्य लाभ हो सकता है। हमने जो बातें कहीं है,
इन बातों को प्रस्तुत करने वाली एक लघु पुस्तिका भी इन लोगों को देनी होगी जिससे उसे पढ़कर इनकी सन्तुष्टि हो और यह आर्यसमाज के महत्व को जान जायें। इन व्यक्तियों को रविवार को परिवार सहित आर्यसमाज के सत्संगों में आने का निवेदन भी करना होगा।
हमें आर्यसमाज के सत्संगों में उत्तम कोटि के भजन एवं उपदेशों की व्यवस्था करनी होगी। विद्वानों को ऐसे प्रवचन करने चाहिये जो नये सदस्यों सहित पुराने लोगों के लिये भी उपयोगी एवं आकार्षण का केन्द्र हों।
आर्यसमाज में मंत्री, प्रधान तथा उपदेशक मिशनरी भावना रखने वाले तथा ऐसी योग्यता वाले होने चाहियें जो सदस्यों की सभी शंकाओं का समाधान करने में दक्ष हों।
प्रत्येक रविवारीय सत्संग में शंका समाधान किया जाना चाहिये। आर्यसमाज के सभी सदस्यों को भी मंच पर अपने विचार व्यक्त करने का अवसर मिलना चाहिये।
इसके लिये प्रति सप्ताह एक या दो सदस्यों को 5 से 10 मिनट का समय दिया जा सकता है। आर्यसमाज में व्यवस्था में परिवर्तन व सुधार भी किया जाना चाहिये।
सत्संग में आये सभी अपरिचितजनों से मंत्रीजी या प्रधानजी को मिलना चाहिये और उनका परिचय लेकर उनसे प्रत्येक सत्संग में आने का निवेदन करना चाहिये।
यदि वह धर्म व संस्कृति विषय पर उपदेश कर सकते हैं तो उन्हें लगभग 10 मिनट का समय दिया जा सकता है।
सत्संग में आये हुए नये व्यक्तियों का मंत्रीजी को स्वागत करना चाहिये और उनका परिचय प्राप्त कर सभी सदस्यों को उससे अवगत कराना चाहिये।
समाज के प्रधान जी द्वारा सबको नियमित स्वाध्याय करने की प्रेरणा की जानी चाहिये। आर्यसमाज के सत्संगों में अधिकारियों को परिवार सहित आने का प्रयास करना चाहिये।
निर्वाचन में योग्य व्यक्ति जो समाज के कार्यों के लिए पर्याप्त समय दे सकते हैं, उन्हें ही अधिकारी नियुक्त करना चाहिये। आर्यसमाज में गुटबाजी नहीं होनी चाहिये।
अधिकारी हर वर्ष बदल दियें जायें तो अच्छा है। इससे दूसरे व्यक्तियों को भी अधिकारी बन कर कार्य करने का अनुभव प्राप्त होगा और भविष्य में योग्य उत्तराधिकारी न मिलने की समस्या उत्पन्न नहीं होगी।
सभी अधिकारियों को एक दूसरे को सहयोग करना चाहिये। आर्यसमाज में जाने का अर्थ वैदिक धर्म व संस्कृति को मजबूत करना व प्रचारित करना है, अधिकारी बनना व गुटबाजी करना नहीं है।
सभी सदस्यों को अपने मन से अधिकार प्राप्ति का मोह त्यागना होगा तभी आर्यसमाज आगे बढ़ सकता है। आर्यसमाज में सच्चिरित्र एवं गुटबाजी से पृथक विद्वानों को आदर मिलना चाहिये।
सब सदस्यों को आर्यसमाज के नियमों व मान्यताओं का अपने जीवन में शत-प्रतिशत आचरण करना चाहिये। ऐसा करके ही हम आर्यसमाज को कुछ आगे ले जा सकते हैं।
हमने आर्यसमाज की उन्नति के विषय कुछ विचार किया और अपनी बातों को आपके सामने प्रस्तुत किया है। आर्यसमाजों को वार्षिकोत्सव से अधिक ध्यान प्रचार पर देना चाहिये।
वर्तमान में आर्यसमाजों की स्थिति बहुत दयानीय है। देश में इतनी घटनायें घटती हैं परन्तु आर्यसमाज की प्रतिक्रिया कभी सुनने को नहीं मिलती।
आर्यसमाज से निष्क्रियता को दूर करना सब सदस्यों एवं अधिकारियों का कर्तव्य है। तीस चालीस वर्ष पूर्व हमने जब आर्यसमाज में निष्क्रियता देखी थी तो हमने लेखन के माध्यम से उसे दूर करने का प्रयास किया था।
स्थानीय सभी समाचार पत्रों में लेख व समाचारों के माध्यम से नियमित रूप से प्रचार करते रहते थे। आज भी हम इस कार्य को जारी रखे हुए हैं।
जो व्यक्ति आर्यसमाज के लिये जितना कार्य कर सकता है उसे अवश्य करना चाहिये। इस लेख की यदि कोई बात उपयोगी लगे तो स्वीकार करें और जो उचित न लगे उसे छोड़ दें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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