मूर्ति पूजा - वैदिक समाज जानकारी

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Saturday, 21 December 2019

मूर्ति पूजा

मूर्ति पूजा

मूर्ति पूजा
मूर्ति पूजा


पौराणिक का वेदों से मूर्ति पूजा के प्रमाण की परीक्षा
कुछ दिन पहले एक बाबा भीम से भी तगड़ा कोपी पेस्ट या भागवत कथा प्रवक्ता सरला ने किसी ब्लॉग से वेद के कुछ मन्त्र दे कर सिद्ध किया कि वेदों में मूर्ति पूजा है ,,

हालांकि उसके अर्थो में प्रतिमा शब्द था लेकिन यह कहीं नही लिखा था कि पत्थर की मूर्ति बनाओ ... आइये उसके दिए प्रमाणों को देखते है -
पुराणिक पक्ष - अर्थववेद २/१३/४ में आया है - हे ईश्वर ! आओं इस पत्थर में ठहरो यह पत्थर तुम्हारा शरीर है |

आर्य सिद्धान्ती - वाह पंडित जी आधा मन्त्र दे कर अपना उल्ल्लू सीधा कर लिया | जरा इसी का अगला भाग पढिये -" कुण्वन्तु विश्वे देवा: आयुष्ते शरद: शतम " अर्थात सब देवता तुम्हारी आयु १०० वर्ष करे ..

आपके अर्थ से तो ऐसा लग रहा है कि आप परमेश्वर को देवताओं से आशीर्वाद दिलवा रहे हो कि उसकी आयु देवता १०० वर्ष करे ..अर्थात आपका ईश्वर तो अनादी नही है बल्कि १०० वर्ष बाद मर जाएगा ...आपने अर्थ का अनर्थ तो किया ही लेकिन परमेश्वर को देवता से आशीर्वाद दिलवा कर तुच्छ बना दिया |

यह मन्त्र ईश्वर के लिए नही बल्कि ब्रह्मचारी बालक के लिए है आपके ही सायण ने इसका निम्न प्रकार अर्थ किया है - " हे माणवक ! एहि आगच्छ अश्मान आतिष्ठ ,दक्षिणेन पादें आतुम | ते सर्वतनू: शरीर अश्मा भवतु अश्मवद रोगादिविनिर्मुक्त दृढ भवन्तु | विश्वे देवाश्च ते तव शतसंवत्सर परिमित आयु कुर्वन्तु |
अर्थात - हे ब्रह्मचारी | तुम यहा आओ ओर अपना दाहिना पैर इस पत्थर पर रखो | ओर इसकी तरह दृढ हो | तुम्हारा शरीर निरोगी हो ओर देव तुम्हारी आयु १०० वर्ष करे |
ये देखा आपका छल ...


पुराणिक - अथर्ववेद 3/10/3 में उल्लेख है-
“संवत्सरस्य प्रतिमा याँ त्वा रात्र्युपास्महे। सा न आयुश्मतीं प्रजाँ रायस्पोशेण सं सृज॥”
अर्थात् “ हे रात्रे ! संवत्सर की प्रतिमा ! हम तुम्हारी उपासना करते हैं। तुम हमारे पुत्र-पौत्रादि को चिर आयुष्य बनाओ और पशुओं से हमको सम्पन्न करो।”


आर्य सिद्धान्ती - पंडित जी आपके भी अर्थ में कहा लिखा है कि ईश्वर की पत्थर की मूर्ति बना कर पूजो आपका अर्थ भी रात्री की प्रतिमा बता रहा है क्या रात्री की कोई मूर्ति आपने देखि है |


यहा रात्रि को ईश्वर की प्रतिमा अर्थात प्रतिरूप की उपमा दी है क्यूंकि रात्री में मनुष्य सो कर आनन्द भोगते है ओर अपनी थकान दूर कर नया जोश भर कर अपनी धन धान में उन्नति करते है |


इसी मन्त्र का विनियोग पारस्कर ग्र्ह्सुत्र ३/२/१ में है - जिसमे ऋषि -प्रजापति ओर देवता रात्रि है ..अर्थ - है रात्रि ! तु प्रजापति का प्रतिरूप है ,हमारे आरोग्य धन धान को बढाने वाली तुझे हम जानते है |

प्रतिमा का अर्थ प्रतिरूप इस प्रकार होगा -
प्रतिमाम आतश्चोपसर्ग (पा. ६/३/१०६ ) प्रतिरूपम ..
सम्वत्सर के निम्न अर्थ है समीप आने वाला - समीपम आगच्छत सम्वत्सर (अ. ३/५/८ )
परमेश्वर - (पा. ४/१/३२ )
अब आप समझ गये होंगे यहा रात्रि को उपाधि दी है न कि ईश्वर की मूर्ति बनाना है |

पुराणिक - मा असि प्रमा असि प्रतिमा असि | [तैत्तीरिय प्रपा० अनु ० ५ ]
हे महावीर तुम इश्वर की प्रतिमा हो |

आर्यसिद्धान्ती - वेदों से आप ब्राह्मण .आरंडय ग्रंथो पर आ गये | लेकिन पोप जी आप ने किस शब्द का अर्थ यहा परमेश्वर लिया यह मुझे ज्ञात नही हो रहा क्यूंकि आपको आधी अधुरा प्रमाण दे कर अपनी बात रखना अच्छे से आता है |

चलिए आपने यहा पर एक महावीर शब्द लिखा जिसे आप हनुमान जी की मूर्ति समझ रहे हो | लेकिन शतपथ ब्राह्मण में महावीर कोई मूर्ति नही बल्कि एक प्रकार का यज्ञ पात्र है - " कुशान्त्स स्तीर्य द्वंद पात्रा.........भवति " (शत. १४/१/३/१ )
कुशाय बिछा कर दो दो पात्र रखो |

 उपयमनी ,महावीर ,परीशा ,पिन्वन ,रोहिंकपाल ,ओर भी दुसरे पात्र |
यहा महावीर पात्र का नाम है |

शतपथ १४/१/२/१७ में महावीर बनाने की विधि लिखी है - मिटटी लेकर एक बालिश्त ऊँचा ,गढनेवाला ,मध्य में खाली ,मेखला युक्त महावीर बनाये |

यहा भी स्पष्ट है कि यह महावीर पात्र ही है आपका पूंछ वाला हनुमान नही न ही कोई प्रतिमा |

इसी में महावीर को घोड़े की लीद (पखाने ) में पकाने का उलेख हैं - देखे - शतपथ . १४/१/२/२० ..महावीर को पहले घोड़े के लीद में पकाओ फिर ३ मन्त्र पढ़ कर महवीर को घोड़े की लीद की धुप दो .. क्या पोप जी आप अपने महावीर की मूर्ति को घोड़े की लीद की धुप देते हो या नही ?

तो इन ग्र्ह्सुत्रो .ब्राह्मणों में यह महावीर कोई मूर्ति नही बल्कि यज्ञ पात्र ही है |
पुराणिक - सह्स्त्रस्य प्रतिमा असि | [यजुर्वेद १५.६५]
हे परमेश्वर , आप सहस्त्रो की प्रतिमा [मूर्ति ] हैं |

आर्य सिद्धान्ती - पोप जी इस मन्त्र का देवता है विद्वान ओर यह विद्वान को कहा गया है न कि ईश्वर को इस मन्त्र का व्याख्या शतपथ में ८/७/४/१० -११ में दी हुई है एक बार उसे भी देख लेते तो यह भ्रम ही न होता |

 शतपथ में भी यह ईश्वर को नही विद्वान को दी हुई उपमा है क्यूंकि विद्वान को ज्ञान होने से उसे यह उपमा दी है |

पुराणिक -अर्चत प्रार्चत प्रिय्मेधासो अर्चत | (अथर्ववेद-20.92.5)
हे बुद्धिमान मनुष्यों उस प्रतिमा का पूजन करो,भली भांति पूजन करो |

आर्य सिद्धान्ती - धन्य हो ! पोप जी इस मन्त्र में कही भी प्रतिमा .मूर्ति शब्द तक नही लेकिन आपने प्रकट कर दिए |

 मन्त्र में २ शब्द है एक पुरम जिसका अर्थ दुर्ग होता है | दूसरा धुरम जिसका अर्थ होता है शत्रुओ का धर्षण करने वाले |
इस मन्त्र में ईश्वर को दुर्ग के समान बताया है | जेसे दुर्ग शत्रुओ के हमलो से बचाता है | उसी तरह ईश्वर भी रक्षा करता है इसलिए दुर्ग विशेषण प्रयुक्त हुआ है |

इस मन्त्र का अर्थ होगा - हे विद्वानों /प्रियमेधो उस ईश्वर का भलि भान्ति अच्छे तरह पूजन करो जो निर्भय दुर्ग की तरह रक्षा करने वाला ओर शत्रुओ का धर्षण करने वाला है |
अब बताइए कहा से मूर्ति ले आये आप |

पुराणिक - ऋषि नाम प्रस्त्रोअसि नमो अस्तु देव्याय प्रस्तराय| [अथर्व ० १६.२.६ ]
हे प्रतिमा,, तू ऋषियों का पाषण है तुझ दिव्य पाषण के लिए नमस्कार है |

आर्य सिद्धान्ती - पोप जी ! थोडा निरुक्त ओर व्याकरण भी देख लेते तो काहे भ्रम में रहते | मन्त्र में ऋषीणाम शब्द का निरुक्त में इन्द्रिय अर्थ किया है देखे - " सप्त ऋषय: प्रतिहिता: शरीरे षडइन्द्रियानि विसप्तति (निरुक्त १२/३७ ) इन्द्रियणाम
ओर दूसरा प्रस्तरा जिसका व्याकरण से अर्थ फैलाने वाला होता है देखे - प्रसारक: प्रश्वर असि )

तो मन्त्र का अर्थ होगा - है परमेश्वर ! इन्द्रियों को फैलाने वाले ,देवो का विस्तार करने वाले तुम्हे नमन हो |
यदि इस मन्त्र में ऋषीणा का अर्थ ऋषि ने तब भी आपके मन्तव्य की पुष्टि नही होती है देखे - इस में देवता -वाक् है जिसका अर्थ है वाणी .. अब भौतिक परख व्याख्या निम्न तरह से होगी |

है वाणी | तु ऋषियों द्वारा विस्तार होने वाली है | तुझ देव स्वरूप सर्वत्र विस्तारित को नमन हो |
यहा मन्त्र द्रष्टा विद्वानों द्वारा वेद वाणी को संसार में प्रचारित करने का भी उपदेश है |
तो कहिये यहा भी आपके मूर्ति आदि सिद्ध नही होते है |

पुराणिक -
प्रतिमा में शक्ति का अधिष्ठान किया जाता है, प्राणप्रतिष्ठा की जाती है। सामवेद के 36 वें ब्राह्मण में उल्लेख है-
“देवतायतनानि कम्पन्ते दैवतप्रतिमा हसन्ति। रुदान्त नृत्यान्त स्फुटान्त स्विद्यन्त्युन्मालान्त निमीलन्ति॥

अर्थात्- देवस्थान काँपते हैं, देवमूर्ति हँसती, रोती और नृत्य करती हैं, किसी अंग में स्फुटित हो जाती है, वह पसीजती है, अपनी आँखों को खोलती और बन्द भी करती है।

आर्य सिद्धान्ती - फिर वेद से ब्राह्मण पर कूद गये | चलिए इसे भी ले आइये यहा मूर्तियों का हसना गाना लिखा है तो क्या यह आवश्यक है कि आप जो मूर्ति की समझ रहे हो व्ही प्रतिमा है ,
यहा क्यूंकि हमने या आपने शायद ही ऐसी मूर्ति देखी हो जो नाचती गाती ,खेलती कूदती ,खाती हो ,,ये तो सारी चेतन क्रियाए है तो जब आपकी मुर्तिया यह सब क्रियाए नही करती तो पूजते क्यूँ हो |

जब मूर्ति ऐसा करने लग जाए तब इस ब्राह्मण के वचन को भी मान लेना अन्यथा प्रमाण के आभाव में यह वचन निरर्थक ही है |

तथापि जेसा आप समझ रहे हो वेसा आशय इस ब्राह्मण वचन का नही है वास्तविक आशय क्या है वो देखिये मूर्तिपूजा नही बल्कि यज्ञ करना है -


षडविश ब्राह्मण में मूर्तिपूजा या यज्ञ
पौराणिक षडविश ब्राह्मण का प्रमाण दे कर मूर्तिपूजा सिद्ध करते है लेकिन उसमे भी देवताओं की प्रतिमा का रोना .गाना ,हसना ,नाचना ,कापना आदि लिखा है पूजना नही |

 ओर इसमें भी यज्ञ आदि करने का उपदेश है मूर्तिपूजा का नही –
अब हम वह पूरा पाठ लिखते है फिर उसका अर्थ ताकि इस विषय पर कोई शंका न रहे –

“ यदा देवतायतनानि कम्पन्ते देवप्रतिमा हसन्ति रुदन्ति नृत्यन्ति ,स्फुटन्ति ,स्विधन्त्युन्मीतंति निमीलन्ति तदा प्रायश्चित भवतीद विष्णुविचक्रम इति स्थालीपाक हुत्वा पंचभिराहुतिभिरभिजुहोति: विष्णवेस्वाहा ,सर्वभूताधिपतयेस्वाहा, चक्रपाणये स्वाहेश्वरायस्वाहा ,सर्वपापशमनाय स्वाहेति: व्याह्रतिभिहुत्वाथ साम गायेत ||”


अर्थ – जब देव प्रतिमा (सूर्यादि देवो के लोक ) कापते है ,हसते है ,नाचते है ,फटते है ,पसीना लेते है व चिमचिमाते है तब यह प्रायश्चित है कि (इदम विष्णुवि॰ ) इस मन्त्र से स्थालीपाक का होम करके ,ये पांच आहुति करे –
(१) विष्णवे स्वाहा
(२)सर्वभूताधिपतये स्वाहा
(३)ईश्वराय स्वाहा
(४)चक्रपाणये स्वाहा
(५)सर्वपापशमनाय स्वाहा
फिर व्याहृतियो से (भू: स्वाहा ,भुव: स्वाहा,स्व स्वाहा:,भूर्भुव: स्व: स्वाहा ) ये आहुति देवे ओर सामगान करे |

यहा तात्पर्य यह है कि जब मनुष्य पाप बहुत करते है तो विष्णु की व्यवस्थानुसार वायुमंडल में कुछ विकार उत्पन्न होता है ओर हलचल मचती है , रोगादि का बडा भय होता है ओर देवता अर्थात तारागण आदि के आकार उस वायु आदि विकार के कारण बहुत अनोखे २ दृष्टि पड़ने लगते है |

तब मनुष्य को पाप का स्मरण कर विष्णु का यज्ञ करना चाहिए | जिससे वायुमंडल में शान्ति हो ,रोगादि भय दूर हो | विष्णु सब जगत का आधार है उसी के नाम भिन्न भिन्न विशेषणों से आहुति में लिखे है |

 इसमें देवता शब्द से पाषाण आदि निर्मित प्रतिमा का अर्थ लेने में कोई प्रमाण नही है | किन्तु आठ वसुवो के अंतर्गत होने से शतपथ ब्राह्मणनुसार नक्षत्र ,तारागण की देवता संज्ञा तो सप्रमाण है |

ओर प्रत्यक्ष में प्राय देखा भी जाता है कि जब वायु में कोई बड़ा भारी विकार होता है तो वहा रोगादि ,अनावृष्टिक ,भूकम्प,बाढ़ आदि आपदाओं के चिन्ह चन्द्र ,तारो ,नक्षत्र आदि में टूटने ,हसने ,रोने ,कापने जेसे दिखाई पड़ते है |

(सम्भवत : इन्ही आसमानी संकेतो को देख हमारे पूर्वज प्राकृतक आपदा आदि का पूर्वानुमान कर लेते थे ,,वेसे नक्षत्र आदि की विभिन्न क्रियाए देख पोराणिक ज्योतिष भी शकुन अपशकुन का विचार करते है )

यहा चक्रपाणि ,विष्णुचक्र आदि शब्द से तात्पर्य सुदर्शन चक्र वाले पौराणिक विष्णु से नही बल्कि वायुमंडल चक्र या तारागण आदि के चक्र से है जिन्हें ईश्वर चलाता ओर नियंत्रित करता है |

यहा हाथ ओर चक्र आदि भौतिक हाथ नही बल्कि रूपक अलंकार में कहा है इसमें श्वेताश्वरोपनिषद का भी प्रमाण है –
“ अपाणिपादों जवनोग्रहीता ||३/१९||”
अर्थात वह हाथ पाँव नही रखता पर हाथ पाँव के कार्य सर्वव्यापकता से लेता है |

इसके अतिरिक्त इसी ब्राह्मण के अन्य प्रकरण भी विचारणीय है –
षडविश ब्राह्मण के ५ वे प्रपाठक में १२ खंड है ओर ७ वे खंड में –
सपृथ्वीमन्वावर्त्तते. इत्यादि |
प्रथ्वीलोक के विचित्र उत्पादों की शान्ति का वर्णन है |
८ वे खंड में –
सोन्तरिक्षमन्वावर्तते. इत्यादि |
अन्तरिक्ष लोक के पदार्थो के विकृत दर्शनादि सूचित रोगादि शान्ति का प्रायश्चित कहा है |

फिर ९ वे खंड में –
सदिवमन्वावर्त्ततेsथ यदास्य तारावर्षाणि योल्का: पतन्ति निपतनन्ति धूमायन्ति दह्मनान्ति इत्यादि |
इसमें द्योलोक गत उत्पाद दर्शन का प्रायश्चित कह फिर १० वे खंड में –
स परंदिवमन्वावर्त्तेतेsथ यदास्यायुक्तानि यानानि प्रवर्न्तन्ते देवतायतनानि कम्पन्ते दैवत प्रतिमा हसनन्ति रुद्रन्ति . इत्यादि |

इसमें परम द्योलोक गत पदार्थो के उत्पाद दर्शन का प्रायश्चित होना आदि लिखा है | इससे स्पष्ट है कि द्युलोक के देवताओं का वर्णन है | पृथ्वीलोक के आधुनिक प्रचलित भेरव आदि मूर्तियो के नही है |

ओर सबसे महत्वपूर्ण बात यहा मूर्तिपूजा तक नही बल्कि होम ,यज्ञ करने का ही विधान है | अत: इस प्रमाण को मानने वाले पौराणिक को यज्ञादि करने चाहिए मूर्तिपूजा नही |
इससे आगे के प्रमाण इन्होने अनार्ष ग्रंथो के दिए |
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यहा हमने इनके द्वारा दिय गये कुछ कॉपी पेस्ट प्रमाणों को परखा जो किसी भी तरह मूर्ति पूजा का समर्थन नही करते लेकिन पोप जी ने जबरदस्ती बिना निरुक्त ,ब्राह्मण ओर अपने प्राचीन भाष्यकारो को देखे बिना मूर्ति पूजा निकाल दी |

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