ओ३म्
आचार्य डॉ0 रामनाथ वेदालंकार जी वेदों के मर्मज्ञ विद्वान थे। उन्होंने सामवेद का संस्कृत-हिन्दी में प्रशंसनीय भाष्य किया है। वेदों पर उनके उच्चकोटि के लगभग एक दर्जन ग्रन्थ प्रकाशित हैं।
उनका प्रत्येक ग्रन्थ पठनीय है जिससे पाठक के वेद विषयक ज्ञान में वृद्धि होती है। आचार्य जी की भाषा अत्यन्त सरल एवं सुबोध होने के साथ रोचक एवं प्रभावशाली भी है।
उनकी अभिव्यक्ति की शैली भी हृदय को छूने वाली है। उनकी कोई भी पुस्तक एक आरम्भ करें तो उसे समाप्त कर ही छोड़ने का मन होता है।
हमारा सौभाग्य है कि हमने उनके साक्षात् दर्शन किये हैं और उनसे मिलते रहते थे और अनेक विषयों पर चर्चा करते थे। हमने उनके प्रायः सभी ग्रन्थों को पढ़ा है।
आज हम उनकी एक प्रसिद्ध कृति ‘‘वैदिक नारी” की भूमिका से वेदों में नारी के गौरव विषयक कुछ विचारों को एक बानगी के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।
यह भी बता दें कि ‘वैदिक नारी’ पुस्तक का पहला संस्करण 34 वर्ष पूर्व स्वामी दीक्षानन्द सरस्वती जी ने समर्पण शोध-संस्थान, नई दिल्ली से प्रकाशित किया था।
इसका नया संस्करण ‘हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डोन सिटी’ से इसके संस्थापक सुप्रसिद्ध ऋषिभक्त श्री प्रभाकरदेव आर्य जी ने सन् 2018 में बहुत ही भव्य रूप में प्रकाशित किया है। पुस्तक की पृष्ठ संख्या 216 है तथा मूल्य रु. 100.00 है।
आचार्य डॉ0 रामनाथ वेदालंकार जी वेदों में नारी के गौरव का उल्लेख करते हुए लिखते हैं-
वेदों में नारी की स्थिति अत्यन्त गौरवास्पद वर्णित हुई है। यह देखकर एक सुखद सन्तोष होता है। वेद की नारी देवी है, विदुषी है, प्रकाश से परिपूर्ण है, वीरांगना है,
वीरो की जननी है, आदर्श माता है, कर्तव्यनिष्ठ धर्मपत्नी है, सद्गृहिणी है, घर की सम्राज्ञी है, सन्तति की प्रथम शिक्षिका है, अध्यापिका बनकर कन्याओं को सदाचार और ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने वाली है,
उपदेशिका बनकर सबको सन्मार्ग बताने वाली है, मर्यादाओं का पालन करनेवाली है, जगत में सत्य और प्रेम का प्रकाश फैलानेवाली है।
यदि वह गुण-कर्मानुसार क्षत्रिया है तो धनुर्विद्या में निष्णात होकर राष्ट्र-रक्षा में भी हिस्सा बंटाती है। यदि उसमें वैश्य के गुण-कर्म हैं तो वह उच्चकोटि के कृषि, पशुपालन, व्यापार आदि में भी योगदान करती है और
शिल्प-विद्या की भी उन्नति करती है। घर की सम्पूर्ण-व्यवस्था का उत्तरदायित्व उसका है। वेदों की नारी पूज्य है, स्तुति-योग्य है, रमणीय है, आह्वान-योग्य है, सुशील है, बहुश्रुत है, यशोमयी है।
वैदिक नारी के इस उज्जवल रूप को देखते हुए स्मृतियों तथा अन्य साहित्य में यदि कहीं नारी के विषय में हीन वचन भी मिलते हों तो वे या तो प्रक्षिप्त हैं या अपने समय की स्थिति के सूचक हैं। वे प्रमाण-कोटि में नहीं आ सकते।
स्वामी दयानन्द के ऋग्वेद-भाष्य और यजुर्वेद-भाष्य का अध्ययन करते हुए यह तथ्य सामने आया कि वेदों की देवियां नारी के चरित्र पर सुन्दर प्रकाश डालती हैं।
वेद का कवि जब प्राकृतिक उषा की छटा का वर्णन करने लगता है तब उसमें चेतनता का आरोप करके उसे मूर्तिमती चेतन देवी के रूप में वर्णित करता है।
उषा एक युवति रानी है, जो रक्तिम साड़ी पहनकर मुस्कराती हुई रथ पर बैठकर आती है। वह द्यौ की पुत्री है, उसके पास गाय, घोड़े तथा अन्य सब प्रकार के वसु है, इस वसु को वह हमें प्रदान भी करती है।
वह प्रिय, मधुर, सत्य वाणी का उच्चारण करती है। वह रथों को चलाती है, पक्षियों को उड़ाती है, द्वेषियों को भगाती है, आह्वान को सुनती है।
वह कर्म करती है, सोतों को जगाकर कार्य में तत्पर करती है। वह पुनः-पुनः जन्म लेती है।
इन वर्णनों से स्पष्ट है कि वेद प्राकृतिक उषा के प्रतीक द्वारा नारी के स्वरूप को भी चित्रित करते हैं, साथ ही वे आध्यात्मिक अन्तःप्रकाश की उषा की ओर भी संकेत करते हैं।
इस प्रकार एक ही उषा का प्रतीक अधिदैवत में प्राकृतिक उषा, अधिभूत में नारी तथा अध्यात्म में अन्तःप्रकाश की उषा की ओर इंगित करता है।
यही स्थिति आपः, अदिति, सरस्वती, इडा, भारती, सिनीवाली, अनुमति आदि अन्य देवियों की भी है, जिनके नारीपरक अर्थ पर प्रथम परिच्छेद (आचार्य डॉ0 रामनाथ वेदालंकार की पुस्तक वैदिक-नारी) में प्रकाश डाल दिया गया है।
वैदिक देवियां नारीपरक अर्थ को भी प्रस्तुत करती है, इस तथ्य को देखते हुए पुस्तक के कई परिच्छेदों में नारी के मातृ-रूप, पत्नी-रूप, वीरांगना-रूप आदि को चित्रित करने के लिए विभिन्न देवियों के भी मन्त्र (लेखक की कृति वैदिक-नारी में) दिये गये हैं।
हम पाठकों को निवेदन करते हैं कि वह आचार्य उॉ0 रामनाथ वेदालंकार जी का समस्त उपलब्ध साहित्य क्रय कर सुरक्षित कर लें और जीवन में जब भी अवसर मिले,
उसका अध्ययन करें। इससे उन्हें अत्यन्त ज्ञानवृद्धि एवं सुखलाभ होगा एवं नई-नई प्रेरणायें प्राप्त होंगी। ओ३म् शम।
-मनमोहन कुमार आर्य
“आचार्य डॉ0 रामनाथ वेदालंकार के नारी-गौरव विषयक प्रशंसनीय विचार”
=============आचार्य डॉ0 रामनाथ वेदालंकार जी वेदों के मर्मज्ञ विद्वान थे। उन्होंने सामवेद का संस्कृत-हिन्दी में प्रशंसनीय भाष्य किया है। वेदों पर उनके उच्चकोटि के लगभग एक दर्जन ग्रन्थ प्रकाशित हैं।
उनका प्रत्येक ग्रन्थ पठनीय है जिससे पाठक के वेद विषयक ज्ञान में वृद्धि होती है। आचार्य जी की भाषा अत्यन्त सरल एवं सुबोध होने के साथ रोचक एवं प्रभावशाली भी है।
उनकी अभिव्यक्ति की शैली भी हृदय को छूने वाली है। उनकी कोई भी पुस्तक एक आरम्भ करें तो उसे समाप्त कर ही छोड़ने का मन होता है।
हमारा सौभाग्य है कि हमने उनके साक्षात् दर्शन किये हैं और उनसे मिलते रहते थे और अनेक विषयों पर चर्चा करते थे। हमने उनके प्रायः सभी ग्रन्थों को पढ़ा है।
आज हम उनकी एक प्रसिद्ध कृति ‘‘वैदिक नारी” की भूमिका से वेदों में नारी के गौरव विषयक कुछ विचारों को एक बानगी के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।
यह भी बता दें कि ‘वैदिक नारी’ पुस्तक का पहला संस्करण 34 वर्ष पूर्व स्वामी दीक्षानन्द सरस्वती जी ने समर्पण शोध-संस्थान, नई दिल्ली से प्रकाशित किया था।
इसका नया संस्करण ‘हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डोन सिटी’ से इसके संस्थापक सुप्रसिद्ध ऋषिभक्त श्री प्रभाकरदेव आर्य जी ने सन् 2018 में बहुत ही भव्य रूप में प्रकाशित किया है। पुस्तक की पृष्ठ संख्या 216 है तथा मूल्य रु. 100.00 है।
आचार्य डॉ0 रामनाथ वेदालंकार जी वेदों में नारी के गौरव का उल्लेख करते हुए लिखते हैं-
वेदों में नारी की स्थिति अत्यन्त गौरवास्पद वर्णित हुई है। यह देखकर एक सुखद सन्तोष होता है। वेद की नारी देवी है, विदुषी है, प्रकाश से परिपूर्ण है, वीरांगना है,
वीरो की जननी है, आदर्श माता है, कर्तव्यनिष्ठ धर्मपत्नी है, सद्गृहिणी है, घर की सम्राज्ञी है, सन्तति की प्रथम शिक्षिका है, अध्यापिका बनकर कन्याओं को सदाचार और ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने वाली है,
उपदेशिका बनकर सबको सन्मार्ग बताने वाली है, मर्यादाओं का पालन करनेवाली है, जगत में सत्य और प्रेम का प्रकाश फैलानेवाली है।
यदि वह गुण-कर्मानुसार क्षत्रिया है तो धनुर्विद्या में निष्णात होकर राष्ट्र-रक्षा में भी हिस्सा बंटाती है। यदि उसमें वैश्य के गुण-कर्म हैं तो वह उच्चकोटि के कृषि, पशुपालन, व्यापार आदि में भी योगदान करती है और
शिल्प-विद्या की भी उन्नति करती है। घर की सम्पूर्ण-व्यवस्था का उत्तरदायित्व उसका है। वेदों की नारी पूज्य है, स्तुति-योग्य है, रमणीय है, आह्वान-योग्य है, सुशील है, बहुश्रुत है, यशोमयी है।
वैदिक नारी के इस उज्जवल रूप को देखते हुए स्मृतियों तथा अन्य साहित्य में यदि कहीं नारी के विषय में हीन वचन भी मिलते हों तो वे या तो प्रक्षिप्त हैं या अपने समय की स्थिति के सूचक हैं। वे प्रमाण-कोटि में नहीं आ सकते।
स्वामी दयानन्द के ऋग्वेद-भाष्य और यजुर्वेद-भाष्य का अध्ययन करते हुए यह तथ्य सामने आया कि वेदों की देवियां नारी के चरित्र पर सुन्दर प्रकाश डालती हैं।
वेद का कवि जब प्राकृतिक उषा की छटा का वर्णन करने लगता है तब उसमें चेतनता का आरोप करके उसे मूर्तिमती चेतन देवी के रूप में वर्णित करता है।
उषा एक युवति रानी है, जो रक्तिम साड़ी पहनकर मुस्कराती हुई रथ पर बैठकर आती है। वह द्यौ की पुत्री है, उसके पास गाय, घोड़े तथा अन्य सब प्रकार के वसु है, इस वसु को वह हमें प्रदान भी करती है।
वह प्रिय, मधुर, सत्य वाणी का उच्चारण करती है। वह रथों को चलाती है, पक्षियों को उड़ाती है, द्वेषियों को भगाती है, आह्वान को सुनती है।
वह कर्म करती है, सोतों को जगाकर कार्य में तत्पर करती है। वह पुनः-पुनः जन्म लेती है।
इन वर्णनों से स्पष्ट है कि वेद प्राकृतिक उषा के प्रतीक द्वारा नारी के स्वरूप को भी चित्रित करते हैं, साथ ही वे आध्यात्मिक अन्तःप्रकाश की उषा की ओर भी संकेत करते हैं।
इस प्रकार एक ही उषा का प्रतीक अधिदैवत में प्राकृतिक उषा, अधिभूत में नारी तथा अध्यात्म में अन्तःप्रकाश की उषा की ओर इंगित करता है।
यही स्थिति आपः, अदिति, सरस्वती, इडा, भारती, सिनीवाली, अनुमति आदि अन्य देवियों की भी है, जिनके नारीपरक अर्थ पर प्रथम परिच्छेद (आचार्य डॉ0 रामनाथ वेदालंकार की पुस्तक वैदिक-नारी) में प्रकाश डाल दिया गया है।
वैदिक देवियां नारीपरक अर्थ को भी प्रस्तुत करती है, इस तथ्य को देखते हुए पुस्तक के कई परिच्छेदों में नारी के मातृ-रूप, पत्नी-रूप, वीरांगना-रूप आदि को चित्रित करने के लिए विभिन्न देवियों के भी मन्त्र (लेखक की कृति वैदिक-नारी में) दिये गये हैं।
हम पाठकों को निवेदन करते हैं कि वह आचार्य उॉ0 रामनाथ वेदालंकार जी का समस्त उपलब्ध साहित्य क्रय कर सुरक्षित कर लें और जीवन में जब भी अवसर मिले,
उसका अध्ययन करें। इससे उन्हें अत्यन्त ज्ञानवृद्धि एवं सुखलाभ होगा एवं नई-नई प्रेरणायें प्राप्त होंगी। ओ३म् शम।
-मनमोहन कुमार आर्य
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