आत्मा - वैदिक समाज जानकारी

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Sunday, 25 November 2018

आत्मा

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                   जिस बिंदु पर जीवन यात्रा के अनेक मार्ग फूटते हैं कोई दाएं कोई बाए वहां मैं किधर जाऊं? कौन सा रास्ता सही है ?बीसियों पगडंडियों में से किस पर चलने से मैं अपने लक्ष्य तक पहुंचूंगा? यह प्रश्न प्रत्येक युवक तथा युवती के हृदय में किसी न किसी समय उठते हैं।

 वैदिक काल के युवक तथा युवतियों ने जिस मार्ग को पकड़ा था आज के भौतिक युग में हमारे यह युवक तथा युवतियां उससे उल्टे मार्ग पर अग्रसर हो रही हैं ।

क्या वैदिक काल के युवक तथा युवती आ भौतिकवादी मार्ग पर नहीं चल सकते थे ? उस काल में भी भौतिक ऐश्वर्य की कमी नहीं थी । उनके सामने संसार के सब प्रलोभन 
मौजूद थे । 
              धन-धान्य संपत्ति भौतिक ऐश्वर्य संसार के भोग सब कुछ भोग सकते थे। परंतु उन्होंने भौतिकवादी मार्ग को यह कह कर छोड़ दिया - 'न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य ' - सांसारिक ऐश्वर्या भोग से तृप्ति अवश्य होती है परंतु चाहत फिर भी बनी रहती है ।

वह अखंड आनंद जिसके लिए मनुष्य पानी में मछली की तरह इस संसार में प्यासा फिरता है इससे प्राप्त नहीं होता।
जब मैत्रेयी के सम्मुख याज्ञवल्क्य ने भौतिक सुख सामग्री देने का प्रस्ताव रखा तो उसने पूछा - यन्नु इयं सर्वा पृथ्वी वित्तेन पूर्णा स्यात् कथं तेनाहं  अमृता स्याम् - अर्थात् अगर सारी पृथ्वी धन-धान्य से भरपूर होकर मुझे मिल जाए तो क्या मेरी अमर आनंद पाने की प्यास मिट जाएगी ?

               याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया- यथैवोपकरणवतां जीवितं तथैव ते जीवितं अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन - अर्थात् जैसे साधन संपन्न व्यक्तियों का जीवन होता है वैसा तेरा जीवन हो जाएगा परंतु अमर आनंद तुझे प्राप्त नहीं होगा। यह सुनकर मैत्रेयी ने जो उत्तर दिया वह आज के भौतिकवादी युग को चुनौती है उसने कहा- येनाहं नामृता स्याम् किमहं तेन कुर्याम् - अर्थात् जिस मार्ग पर चलने से मुझे अमरत्व की प्राप्ति ना होगी उस पर चलकर मैं क्या करूंगी?

संसार का वैभव किसको नहीं ललचाता? ऐसे वैभव पूर्ण संसार की इस प्रकार की उपेक्षा वृत्ति का क्या कारण था ? इस रहस्य को समझने के लिए वेदोंं तथा उपनिषदों के विश्व के प्रति दृष्टिकोण को समझना आवश्यक है। वेदोंं तथा उपनिषदों का संसार के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण था । 

           यथार्थवाद क्या है ? उपनिषद में नचिकेता को आचार्य मृत्यु ने और मैत्रेयी को मुनि याज्ञवल्क्य ने बार-बार कहा कि संसार सत्य है परंतु साथ ही यह भी कह दिया कि यह अंत तक टिकने वाला नहीं है ।

संसार के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण यही है कि ना इसके सत् होने से इनकार किया जा सकता है और न इस बात से इंकार किया जा सकता है कि यह टिकने वाला नहीं है अर्थात् - असत् है।

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